'आशिक़ को तो अल्लाह न दिखलाए बुढ़ापा': नज़ीर अकबराबादी और उनकी लैंगिक शेरो-शायरी

रज़ीउद्दीन अक़ील 


गर शाल ओढ़ाई तो उसी शाल में ख़ुश हैं 
पूरे हैं वही मर्द जो हर हाल में ख़ुश हैं 


उपरोक्त पंक्तियाँ उर्दू के लोकप्रिय शायर नज़ीर अकबराबादी (१७३५ - १८३०) की कही हुई हैं. मुग़लों के पतन के दौर में राजनीतिक ठिकानों के तांडव से किनारा-कशी अख़्तियार करते हुए, नज़ीर ने दिल्ली के गलियारों की गहमा-गहमी छोड़कर आगरा-मथुरा के ब्रज-मंडल में अपनी शायरी से समाज के हर तबके के बीच एक अलग पहचान बनाई. नज़ीर की विभिन्न प्रकारों और शैलियों में कही गई कविताओं का एक विशाल संग्रह लखनऊ के मुंशी नवल किशोर प्रेस ने प्रकाशित किया था. मैंने १९५१ में प्रकाशित एक संस्करण देखा है. 

नज़ीर की शायरी का रेंज पढ़ने वालों के दिमाग़ों की बंद खिड़कियों को हमेशा के लिए खोल सकता है. सहृदय युवा पीढ़ी भीड़ से हटकर ज़िन्दगी के दूसरे रंगीन पहलुओं से भी आशनाई का रस्ता निकलता हुआ देख सकता है. दशहरा, दिवाली, होली और ईद से जुड़ी ख़ुशियों के अलावा, प्रकृति की दूसरी नेमतों जैसे मीठे फल (ककड़ी, तरबूज़, संतरे, आम आदि), मेले ठेले से जुड़े आनंदायक आयोजन और ज़िन्दगी के हर दौर (बचपन, जवानी और बुढ़ापे) के अनुभव को नज़ीर ने बहुत ख़ूबसूरती से कविता की शक्ल में पेश किया है.

यहाँ जवानी की मस्ती से जुड़ी दो कविताएं पेश की जा रही हैं. यह कविताएं १८ साल से कम के बच्चों और दूसरे मासूम लोगों के लिए नहीं हैं. पहली कविता नज़ीर ने अपनी प्रेमिका मोती की शान में लिखा है; दूसरी में जवानी की दीवानगी का जश्न झमकता हुआ मिलता है.

"मोती"

परीज़ादों में है नाम ख़ुदा जिस शान पर मोती 
कोई ऐसा नहीं मोती, मगर मोती, मगर मोती 

झमक जावे निगाहों में जवाहर ख़ाना-ए क़ुदरत 
जो खाकर पान और मलकर मिस्सी हँस दे अगर मोती 

रगे गुल उस कमर के सामने भरती फिरे पानी 
लचक में और नज़ाकत में जो रखती है कमर मोती 

उधर हर मकाँ पर मोतियों के ढेर हो जावें 
अदा से नाज़ से हँसकर क़दम रखे जिधर मोती 

सदा सुनकर हर एक चश्म से मोती टपकते हैं 
फ़क़त बैठे ही गाने में यह रखती है असर मोती 

अजब नक़्शा अजब सज-धज अजब आँखें अजब नज़रें 
बड़े ता'ले, बड़ी क़िस्मत जो देखे एक नज़र मोती  

शर्फ़ पन्ने को पन्ने पर, शर्फ़ हीरे को हीरे पर 
शर्फ़ शरफ़न को ला'लों पर, रही है जिस के घर मोती 

हर एक दन्दान मोती, हुस्न मोती, नाम भी मोती 
सरापा चश्म मोती, तस पर पहने सर बसर मोती 

जो ख़ूबाँ बेनज़ीर इस दौर में हैं नाज़ुको रंगीन 
शर्फ़ रखती है यारो, अब तो सब के हुस्न पर मोती 

मोती की शान में इससे अच्छा क़सीदा और कौन लिख सकता था! ऐसे ही देखिए जवानी का जलवा:

"लुत्फ़े शबाब"

क्या ऐश की रखती है सब आहंग जवानी 
करती है बहारों के तईं दंग जवानी 
हर आन पिलाती है मय और बंग जवानी 
करती है कहीं सुलह, कहीं जंग जवानी 

इस ढब के मज़े रखती है और ढंग जवानी 
आशिक़ को दिखाती है अजब रंग जवानी 

अल्लाह ने जवानी का वह आलम है बनाया 
जौहर कहीं आशिक़ कहीं रुस्वा, कहीं शैदा 
फंदे में कहीं जी है कहीं दिल है तड़पता 
मरते हैं सिसकते हैं, बिलकते हैं अहाहा!

इस ढब के मज़े रखती है और ढंग जवानी 
आशिक़ को दिखाती है अजब रंग जवानी 

न मय का न माजून के मंगवाने का कुछ ग़म 
न दिल के लगाने का न गुल खाने का कुछ ग़म 
गाली का न आँखों के लड़ा आने का कुछ ग़म 
हँसने का न छाती से लिपट जाने का कुछ ग़म 

इस ढब के मज़े रखती है और ढंग जवानी 
आशिक़ को दिखाती है अजब रंग जवानी 

लड़ती है कहीं आँख कहीं दस्त कहीं सैन 
झूटा है कहीं प्यार, किसी से है लगी नैन 
वादा कहीं इक़रार कहीं सैन कहीं नैन 
न जी को कहीं फ़राग़त है न आँखों के तईं चैन 

इस ढब के मज़े रखती है और ढंग जवानी 
आशिक़ को दिखाती है अजब रंग जवानी 

उल्फ़त है कहीं मेहरो मुहब्बत है कहीं चाह 
करता है कोई चाह कोई देख रहा राह 
साक़ी है सुराही है, परीज़ाद हैं हमराह 
क्या ऐश हैं क्या ऐश हैं क्या ऐश हैं वल्लाह 

इस ढब के मज़े रखती है और ढंग जवानी 
आशिक़ को दिखाती है अजब रंग जवानी 

चेहरे पे जवानी का जो आकर है चढ़ा नूर 
रह जाती हैं परियाँ भी ग़र्ज़ उसके तईं घूर 
छाती से लिपटती है कोई हुस्न की मग़रूर 
गोदी में पड़ी लोटे है चंचल सी कोई हूर 

इस ढब के मज़े रखती है और ढंग जवानी 
आशिक़ को दिखाती है अजब रंग जवानी 

अगर रात किसी पास रहे ऐश में ग़लतान 
और वाँ से किसी और के मिलने का हो अधियान 
घबरा के उठे जब तो गिरे पाँव पर हर आन 
कहती है हमें छोड़ के जाते हो किधर जान 

इस ढब के मज़े रखती है और ढंग जवानी 
आशिक़ को दिखाती है अजब रंग जवानी 

रस्ते में निकलते हैं तो होती हैं यह चाहें 
वह शोख़ के हों बन्द जिन्हें देख के राहें 
खाँसे हैं कोई हँसके कोई भारती हैं आहें 
पड़ती हैं हर एक जा से निगाहों पे निगाहें 

इस ढब के मज़े रखती है और ढंग जवानी 
आशिक़ को दिखाती है अजब रंग जवानी 

तनते हैं अगर ऐंठ के चलते हैं अजब चाल 
जो पाँव कहीं राह, कहीं सैफ़ कहीं ढाल 
खैंचे हैं कहीं बाल, कहीं तोड़ लिया गाल 
चढ़ बैठे कहीं हाथ कहीं मुँह को दिया डाल 

इस ढब के मज़े रखती है और ढंग जवानी 
आशिक़ को दिखाती है अजब रंग जवानी 

जाते हैं तवायफ़ में तो होती है यह चाओ 
कहती है कोई "इनके लिए पान बना लाओ"
कोई कहती है याँ बैठो कोई कहती है याँ आओ 
नाचे है कोई शोख़ बताती है कोई भाओ 

इस ढब के मज़े रखती है और ढंग जवानी 
आशिक़ को दिखाती है अजब रंग जवानी 

कहती है कोई रात मेरे पास न आए 
कहती है कोई हमको भी ख़ातिर में न लाए 
कहती है कोई किसने तुम्हें पान खिलाए 
कहती है कोई घर जाए हमें खाए

इस ढब के मज़े रखती है और ढंग जवानी 
आशिक़ को दिखाती है अजब रंग जवानी 

गर दिल को किसी शोख़ परी की हुई तक चाह 
और नाज़नीन करने लगी उस वक़्त वह अकराह 
जों बाज़ के चिड़िया को कहीं दाब ले नागाह 
मचवा दे लिपट कर वहीं....से उई आह 

इस ढब के मज़े रखती है और ढंग जवानी 
आशिक़ को दिखाती है अजब रंग जवानी 

आया जो कोई हुस्न का बूटा या कोई झाड़ 
जा शोख़ से झट लिपटे यह पंजों के तईं झाड़ 
अंगिया के तईं चीर के कुर्ती को लिया फाड़ 
एख़लास कहीं प्यार कहीं मार कहीं धाड़

इस ढब के मज़े रखती है और ढंग जवानी 
आशिक़ को दिखाती है अजब रंग जवानी 

क्या तुझ से नज़ीर अब मैं जवानी की कहुँ बात 
इस पन में गुज़रती है अजब ऐश से औक़ात 
महबूब परीज़ाद चले आते हैं दिन रात 
सैरें हैं बहारें हैं तवाज़ो है मदारात

इस ढब के मज़े रखती है और ढंग जवानी 
आशिक़ को दिखाती है अजब रंग जवानी 

बचपन और जवानी की बेपनाह मस्तियों के बाद बुढ़ापे की कमज़ोरियों से वास्ता पड़ता है. शायर उनके लिए रोता भी है और उनकी पोशीदा फ़ीलिंग्स को भी उजागर करता है: 

सब चीज़ को होता है बुरा हाय बुढ़ापा 
आशिक़ को तो अल्लाह न दिखलाए बुढ़ापा 

आगे थे जहाँ गुलबदन और यूसुफ़े सानी 
देते थे हमें प्यार से छल्लों की निशानी 
मर जाएँ तो अब मुँह में न डाले कोई पानी 
किस दुःख में हमें छोड़ गयी हाय जवानी 

लेकिन ऐसा भी नहीं है कि सारे बूढ़े रो-रोकर ज़िन्दगी काटते रहते हैं. उनकी भी अपनी दुनियाँ है और ख़ाहिशात से निपटने के ज़रिए:

करते हैं इस बुढ़ापे में ख़ूबाँ की हम तो चाह 
अहमक़ हैं ख़ूबरू, जो वह हँसते हैं हम पे आह!
और वह जो कुछ शऊर से रखते हैं दस्तगाह 
सो वह तो हम को देख यह कहते हैं "वाह वाह"!

नज़ीर ने पारंपरिक समाज में वैवाहिक संबंधों से जुड़े समधी-समधन के रिश्तों पर भी ख़ूब चुसकी ली है. देखिए समधन के साथ मस्ती:

"समधन"

करूँ किस मुँह से यारो बयाँ मैं शान समधन की 
लगी है अब तो मेरे दिल को प्यारी आन समधन की 

चमन में हुस्न के हों उसके रुख़ और ज़ुल्फ़ पर क़ुर्बां 
अगर देखें ज़रा सूरत गुलो रेहान समधन की  

कमर नाज़ुक, मटकती चाल, आँखें शोख़, तन गोरा 
नज़र चंचल, अदा अछपल, यह है पहचान समधन की  

सुनहरी ताश का लहंगा, रुपहली गोट की अंगिया 
चमकता हुस्न जोबन का झमकती आन समधन की 

कहूँ कुछ और भी आगे जो समधन हुक्म फरमाएँ 
सिफ़त मंज़ूर है हमको तो अब हर आन समधन की 

बड़ा एहसान मानें हम तुम्हारा आज समधी जी 
मयस्सर हो अगर सोहबत हमें एक आन समधन की 

हमें एक दो घड़ी के वास्ते दूलहा दिला दो तुम 
जो कुछ लहंगे के अंदर चीज़ है पनहाँ समधन की 

नज़ीर अब आफ़रीं है यार तेरी तबा को हर दम 
कही तारीफ़ तू ने ख़ूब आली शान समधन की 

उर्दू साहित्य के इतिहास में, मीर तक़ी मीर और मिर्ज़ा ग़ालिब जैसी मायनाज़ हस्तियों के बीच नज़ीर अकबराबादी एक महत्वपूर्ण कड़ी का काम करते हैं. इनके अलावा कई और शायरों ने अपने वक़्त की धार्मिक और सामाजिक बंदिशों को तोड़कर आगे निकल जाने की प्रचुर मिसाल पेश किया है. समाज, साहित्य और इतिहास के अन्तर्सम्बन्धों को समझने में इन शायरों के कलाम लाभदायक सिद्ध होंगे. जैसा कि हमने ऊपर देखा, इन कवियों के दीवान को लैंगिक आर्काइव का दर्जा देकर हम लिंग के इतिहास के कुछ नए आयाम भी खोल सकते हैं. मेरे लिए जाफ़र ज़टल्ली और नज़ीर अकबराबादी सरीख़े शायरों के कुल्लियात का अध्ययन भारतीय देशज साहित्य और इतिहास को समझने का हिस्सा भी है.

और, आख़िर में नज़ीर की इस पंक्ति के साथ अपनी बात यहाँ समाप्त करते हैं:

सब ठाठ पड़ा रह जाएगा जब लाद चलेगा बंजारा 

(यह संक्षिप्त ब्लॉग नज़ीर अकबराबादी पर लिखे मेरे एक लंबे शोध-पत्र, "‘Aashiq ko tow Allah na Dikhlaai Bhudhapa’: Nazir Akbarabadi and Celebrations of Little Pleasures of Life in Urdu Poetry", पर आधारित है. यह लेख दिन-प्रतिदिन की ख़ुशियों के एहसास के इतिहास को समेटती हुई एक सम्पादित पुस्तक में छप रहा है). 



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