इतिहास-नामा
इतिहास-नामा
हिंदुस्तान के पवित्र भूगोल का सांस्कृतिक-ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
रजीउद्दीन अकील
विषय-सूची
प्रस्तावना
भूमिका
1. धर्म की राजनीति और इतिहासलेखन की समस्याएं
2. भारतीय भाषाओं में इतिहास-लेखन की परम्पराएं और चुनौतियां
3. संस्कृत में इतिहासलेखन की एक शानदार मिसाल: कल्हण की राजतरंगिणी
4. मध्यकालीन और शुरुआती आधुनिक भारत की सांस्कृतिक गतिशीलता
5. मध्यकालीन भारत में सूफीमत की प्रमुख विशेषताएं
6. मध्यकालीन भारत की भक्ति परम्पराओं के चंद अहम पहलु
7. हजरत निजामुद्दीन औलिया की रूहानी जिंदगी का एक दिन
8. हजरत अमीर खुसरौ देहलवी
9. सुलतान मोहम्मद बिन तुगलक की त्रासदी
10. भारतीय फारसी इतिहासलेखन: जियाउद्दीन बरनी की तारीख-ए-फिरोजशाही
11. संत कबीर: कहें कबीर एक राम जपहु रे, हिंदू तुरक न कोई
12. ‘बाबर का वसीयतनामा’: राजनीतिक सिद्धांत और मसलेहत के तकाजे
13. अकबर और औरंगजेब: मुगल शासन के कतिपय महत्वपूर्ण आयाम
14. नरगिस्ताने-राम: औरंगजेब को समर्पित एक राम-कथा
15. जाफर जटल्ली और मुगलकालीन साहित्य एवं लिंग का इतिहास
16. उर्दू शायरी में दिवाली का जश्न
17. लैंगिक इतिहास का एक उपेक्षित अध्याय
18. गदर के वाकियात और मिर्जा गालिब की अजीबो-गरीब दास्तान
19. महात्मा गांधी की यादगार
20. उर्दू में तारीख-निगारी की एक झलक
21. गंगा-जमुनी संस्कृति और गोपी चंद नारंग
22. सूफी कव्वाली: ‘एक सिलसिला-ए नूर है हर सांस का रिश्ता’
23. पुस्तक परिचय
ग्रन्थ-माला
अनुक्रमणिका
प्रस्तावना
यह किताब हिंदी में इतिहासलेखन की हमारी कोशिश का एक हिस्सा है। हिंदी में पढ़ाने का काम हम एक जमाने से कर रहे हैं। जिम्मेदारी के साथ लिखना और भी मुश्किल काम है। हमारे कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में पठन-पाठन का काम अंतर्राष्ट्रीय स्तर का होना चाहिए। यह हमारे पाठ्यक्रम में भी झलकता है। लेकिन लिखने का मयार उस दर्जे का अमूमन नहीं है। भारतीय भाषाओं में यह बात खास तौर से देखने को मिलती है। शोध और लेखन के काम को स्तरीय बनाना नामुमकिन भी नहीं है। अच्छी शिक्षा, शोध की ट्रेनिंग (प्रशिक्षण), भाषाई ज्ञान पर कुछ हद तक दखल या सलाहियत, और विद्वत वस्तुनिष्ठता के साथ सामाजिक राग-द्वेष से ऊपर उठकर लिखना-पढ़ना कोई मुश्किल काम नहीं है।
इस पुस्तक में हम भाषा की राजनीति, मजहब की सियासत और इतिहासलेखन की चुनौतियों समेत कई अहम मुद्दों जैसे भारतीय भाषाओं में साहित्य-सृजन, विशेषकर उर्दू-हिंदी की मुश्तरका या साझी विरासत और सूफी-भक्ति चिंतन के सामाजिक ताने-बाने को एक साथ समझने का प्रयास कर रहे हैं। परिप्रेक्ष्य उत्तर भारत का है और समय-काल तकरीबन 800 वर्षों के बीच की आवाजाही। ई.एच. कार के शब्दों में भूतकाल और वर्त्तमान के बीच निरंतर संवाद।
पहले भाषा के इर्द-गिर्द की राजनीति। उर्दू और हिंदी को अलग-अलग करके देखे जाने की कोशिश का इतिहास भी अब देढ़-दो सौ साल का हो चुका है: हिंदी-उर्दू / हिन्दू-मुस्लिम द्वंद्व राजनीतिक घालमेल, जोड़तोड़ और दिवालियापन की तरफ इशारा करता है। वहीं, दूसरे मसले, धर्म और राजनीति पर नजर डालें तो सूफियों के इतिहास के बड़े से बड़े स्कॉलर्स भक्ति परम्पराओं के बारे में नहीं सोचते, और संतों के कर्मठ विद्वानों ने भी सूफियों को अपने विमर्श से बाहर रखा है। अर्थात दो अलग-अलग बंद बक्से। जबकि सूफियों और संतों के साथ जोगियों की भी एक दूसरे से जुड़ी हुई संयुक्त चिंतन हिंदुस्तान के पवित्र भूगोल के सामाजिक और सांस्कृतिक गहराइयों की अक्कासी करती हैं। सूफियों और संतों जैसे धार्मिक गुरु भक्ति और श्रद्धा के सहारे लोगों को जोड़ने का काम कर रहे थे। संत कबीर साहब के निर्गुण राम और साईं बाबा का नारा सबका मालिक एक लोकप्रिय हैं, और आज शायद दोनों बहुत प्रासांगिक हैं, और दोनों को मिटाने की कोशिशें भी जारी हैं।
उपरोक्त बातों को सामाजिक सरोकारों से सम्बद्ध साहित्य के विद्वान भी भलि-भांति समझ रहे हैं, और इतिहासकार भी अनभिज्ञ नहीं हैं। इसके अतिरिक्त, तीसरा मुद्दा: सब जानते हैं कि साहित्य और इतिहास में चोली-दामन का रिश्ता है। साहित्य अपने समय की बौद्धिक उपज है, और पाठ (टेक्स्ट) के परिप्रेक्ष्य (कॉन्टेक्स्ट) को समझना जरूरी होता है। साहित्य और इतिहास को नए जाविए से देखने की कोशिश ने अब यह मुमकिन कर दिया है कि इतिहास वाले साहित्यक अध्ययन को गंभीरता से ले सकें, अर्थात आदर भाव से देख सकें और साहित्य को मनगढंत कहकर उनके महत्व को नकार न दें। और अब साहित्य के विद्वान भी इतिहासकारों को इज्जत की निगाह से देखते हैं!
इस तरह हम उर्दू-हिंदी की साझा साहित्यक और सांस्कृतिक परंपरा एवं सूफी-संतों के आध्यात्म को एक साथ जोड़कर देखते हैं। यह प्रयास हमें मुश्तरका और पृथक और दूसरी अनन्य धाराओं की विभिन्न अदाओं और लहजों को समझने में मदद करता है। खासकर, राजनीति से इतर, सूफी-संतों ने प्रेम और सहिष्णुता का पाठ पढ़ाया है। इस बात पर निरंतर जोर देने की आवश्यकता है। यहां हमें इस बात का ध्यान रखना है कि हमारे शोध और अध्ययन में उत्कृष्टता की जरूरत है। और हमें विद्वत्ता को हमेशा राजनीति से ऊपर रखना चाहिए।
आज पूरी दुनिया में अफरा-तफरी का माहौल है। हम अभी भी थोड़े बहुत झटकों के साथ बचे हुए हैं। साहित्यक चिंतन और संस्कृति का इतिहास हमें लगातार आईना दिखा रहा होता है। इन ऐतिहासिक परंपराओं की जड़ें काफी मजबूत हैं। यहां की प्राचीन मिट्टी को हम पवित्र भूगोल की संज्ञा देते हैं। इसे गाहे-बगाहे राजनीतिक रूप से दूषित किये जाने के बावजूद, यह अपनी सारी उत्कृष्टता और सृजन शक्ति के साथ कायम रहेगी। यह बात हमें भरोसा दिलाती है कि बड़े विद्वान अपने इर्द-गिर्द के घटिया माहौल से ऊपर उठकर कालजयी या क्लासिक साहित्य की रचना करते हैं। आज भी के हम जिस हाल में हैं, साहित्यकार और इतिहास के विद्वान पठन-पाठन के अपने काम में पूरी जिम्मेदारी और रचनात्मकता के साथ जुटे हुए हैं। भविष्य उज्जवल है।
इस मौके पर यह कहते चलें कि हमारे इस काम में हमारे सहयोगियों और दोस्तों के बौद्धिक विमर्श की विशेष भूमिका है। तकरीबन सभी लेख छपने से पहले उनके विभिन्न रुपों में सहयोगियों ने पढ़कर हमारा उत्साह बढ़ाया है। अमर फारुकी, पारुल पण्ड्या धर, विपुल सिंह, तिलोत्तमा मुखर्जी, शिरीन मसूद, फरहत नसरीन, जया कक्कर, संध्या शर्मा, शर्मिला श्रीवास्तव, आदि का विशेष सहयोग और समर्थन वक्त की नासजगी से निपटने में भी सहायक रहा है। भारती जगन्नाथन, दीक्षा भारद्वाज, गीता आर्या, फातिमा समावाती, कुमारी खुशबु, कुंदन कुमार और प्रेम कुमार भी हमारी हर कोशिश की बेझिझक सराहना करते हैं। हमारे कई पुराने छात्र भी अच्छा काम कर रहे हैं। और वह हमारे साथ अब भी बने हुए हैं। संतोष हसनु, रतन कुमार और ललित प्रसाद पर मुझे विशेष गर्व है। दुर्गा राय, ईश्वर कौर और अंकिता कालरा समेत दिल्ली विश्वविद्यालय के अन्य योग्य कर्मियों का भी बहुत-बहुत शुक्रिया। आप सभी के सहयोग ने हमारे काम को आसान किया है। हिंदी क्षेत्र के जाने माने लेखक और पत्रकार प्रकाश के. रे, प्रभात रंजन, संजय कृष्ण, और दिवाकर जी, आदि ने भी हिंदी में लिखने और छपवाने के लिए प्रोत्साहित किया है।
जैक हॉली को हमने तकरीबन पांच साल पहले यह भरोसा दिलाया था कि हम हिंदुस्तान के पवित्र भूगोल के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य पर हिंदी में एक किताब लिखेंगे और यह आपको ही समर्पित होगी! इस किताब में यह दिखाने की कोशिश की गई है कि नया ऐतिहासिक शोध हिंदी में भी पेश किया जा सकता है। इसके साथ ही नए शोध को विश्वविद्यालयों के विद्वत विमर्श से बाहर निकाल कर सार्वजनिक ज्ञान पटल का हिस्सा भी बनाया जाना चाहिए। शैक्षणिक संस्थानों से जुड़े स्कॉलर्स का यह दायित्व है कि ज्ञान रुपी गंगा को और विस्तृत किया जाए। इस नाचीज को ज्ञान-धर्म में अटूट विश्वास है। किसी भी तरह के सामाजिक पूर्वाग्रह और पक्षपात रहित इस किताब को, जिसका नाम इतिहास-नामा रखा गया है, विद्वत्ता के उत्कृष्ट पैमानों पर परखा जाना चाहिए। हमारे अच्छे काम को मकबूलियत हासिल हो और हमारी कोताहियों को नजर-अंदाज कर दिया जाए। हमारी यही कामना है। राजतरंगिणी में कल्हण की इस विनती के साथ यहां हम अपनी बात आगे बढ़ाएंगे कि: इतिहास के पुनर्लेखन के मेरे इस परियोजन को पढ़े या सुने बगैर इसके महत्व को नकार देना कहां तक उचित होगा। इसे मधुर वाणी समझ कर कर्णपुट से तृप्ति-पर्यन्त पीजिए। निःसंदेह, सु-सज्जनों के लिए यह एक आनंदायक अनुभव होगा।
रजीउद्दीन अकील
इतिहास विभाग
दिल्ली विश्वविद्यालय
दिल्ली - 110007.

Comments
Post a Comment