Foreword - Saltanatkalin Itihas

My Foreword in Ashutosh Kumar’s book, Saltanatkalin Itihas (1200 - 1500 Isawi), New Delhi: Manohar, 2022.



प्राक्कथन

 

 

हर ज़माना एक नया इतिहास गढ़ना चाहता है। इसमें वह पीढ़ियां भी होती हैं जो स्वयं किसी महान ऐतिहासिक क्षण या क्रांति को नहीं देख पाती हैं। ऐसे वक़्त में भी चीजों को बेहतर ढंग से समझने के लिए कुछ ऐतिहासिक अंतर्दृष्टि या परिप्रेक्ष्य की ज़रूरत होती है। लेकिन ये अंतर्दृष्टि अक्सर राजनीतिक विचारधाराओं से रंगी होती हैं। समाज में सांस्कृतिक या धार्मिक पहचान संबंधी विवाद अतीत की समकालीन समझ को और भी बिगाड़ देते हैं।

 

राजनीति में इतिहास का दुरुपयोग सार्वजनिक डोमेन को शातिर और ज़हरीला बना देता है। हम आज इसे सोशल मीडिया और व्हाट्सएप फॉरवर्ड में देखते हैं। इन चुनौतियों के बावजूद, इतिहासकार राजनीति की निगाहों और नियंत्रण से बाहर अपना काम करना पसंद करते हैं। यह एक पेशेवर, शैक्षणिक और बौद्धिक गतिविधि है। यह काम हमेशा राजनीतिक संदर्भ से प्रेरित नहीं होता है। किन्तु यह पूरी तरह से अराजनैतिक भी नहीं है। यह कुछ हद तक राजनीतिक रूप से जागरूक विद्वानों का ज्ञान-धर्म है। यह समाज को शिक्षित करना चाहता है। इसकी कोशिश है कि कम से कम छात्रों को बेहतर तरीके से शिक्षित किया जाए। मध्यकालीन भारत पर लिखी गयी इस पुस्तक में, दिल्ली विश्वविद्यालय में हमारे सहयोगी और मित्र डॉ आशुतोष कुमार ने यही काम करने का प्रयास किया है।

 

डॉ कुमार ने दिल्ली सल्तनत के इतिहास के तक़रीबन सभी महत्वपूर्ण विषयों और मुद्दों को शामिल किया है। सल्तनत काल के अध्ययन पर पुस्तकों का अभाव है। हिंदी में इसकी कमी और भी खलती है। लेखक ने विशेष रूप से कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में स्नातक और स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम में शामिल किए जा रहे महत्वपूर्ण विषयों पर ध्यान केंद्रित किया है। ऐसा करते हुए, उन्होंने भारत और विदेशों में हो रहे वर्तमान शोधों का बहुत ही बुद्धिमानी और अथक परिश्रम से उपयोग किया है। समकालीन भारतीय इतिहास-लेखन इतिहास के अंतर्राष्ट्रीय विमर्शात्मक ज्ञान-क्षेत्र का हिस्सा है। इसे किसी संकीर्ण संप्रदाय या संकुचित राष्ट्रवादी दृष्टिकोण से नहीं देखा जाता है। इसका कैनवास बड़ा, समावेशी, विद्वत और गुरुत्वपूर्ण है। लेखक ने अपने काम को इस ऐतिहासिक विधा और दृष्टिकोण से जोड़कर अपनी पुस्तक को एक तरह की सम्पूर्णता और प्रासंगिकता प्रदान की है। और यह काम इन्होंने क़रीने से किया है। 

 

इतिहासलेखन की प्रचलित सभी पद्धत्तियों में प्राथमिक स्रोतों, साक्ष्यों और तथ्यों के महत्त्व को स्वीकार किया जाता रहा है। इस किताब के प्रारंभिक दो अध्यायों में लेखक ने दिल्ली सल्तनत के इतिहास के लिए दरबारी साहित्य और इतिहास, देशज भाषा साहित्य, यात्रा वृतांत और अभिलेख जैसे पारम्परिक स्रोतों का विस्तृत वर्णन किया है। इसमें मिन्हाज-उस-सिराज, अमीर ख़ुसरो और ज़िया बरनी सरीखे लेखक शामिल हैं। पुस्तक में, दिल्ली सल्तनत की सूफ़ी परम्पराओं और भक्ति आंदोलनों पर विस्तारपूर्वक चर्चा करते हुए भी इनसे जुड़े साहित्य और स्रोतों का भली-भांति इस्तेमाल किया गया है। सूफ़ी-भक्ति परम्पराओं ने देश और समाज की सांस्कृतिक एक-जुटता में बहुमूल्य योगदान दिया है, हालांकि संतों और गुरुओं की शिक्षाओं को कतिपय सन्दर्भों में तोड़-मरोड़ कर भी पेश किया जाता रहा है। यानि कभी-कभार आध्यात्मिकता भी राजनीति का शिकार बन जाती है। 

 

इस किताब के कई अध्याय दिल्ली सल्तनत के राजनीतिक पहलुओं पर रौशनी डालते हैं, जिनमें तुर्कों द्वारा सल्तनत की स्थापना, राजत्व के बदलते सिद्धांत, सरकारी ढांचों के स्वरुप और समकालीन मंगोल आक्रमणकारियों से निपटने के उपाय शामिल हैं। इनके अतिरिक्त, बलबन, अलाउद्दीन ख़लजी और मुहम्मद बिन तुग़लक़ जैसे सुल्तानों की नीतियों का भी समालोचनात्मक मूल्यांकन किया गया है। 13वीं-14वीं शताब्दी में दिल्ली के इन निरंकुश शासकों के शासन काल में राजनीतिक हिंसा के धार्मिक औचित्य और वैधता के प्रश्न को समझना ज़रूरी है। लेखक ने सामाजिक और धार्मिक परिवर्तन, तकनीकी और आर्थिक विकास, और शहरीकरण से भी जुड़े विभिन्न महत्वपूर्ण आयामों पर चर्चा की है। यह सभी मसले और संबंधित प्रश्न दिल्ली सल्तनत को समझने की इतिहासकारों द्वारा की जा रही निरंतर कोशिश का हिस्सा हैं। 

 

कुतुब परिसर, सिरी और हौज खास, तुग़लक़ाबाद का क़िला, और फ़िरोज़ शाह कोटला जैसे ऐतिहासिक स्थल दिल्ली सल्तनत की निर्मित विरासत के विशिष्ट मिसाल हैं। यह शानदार स्मारक परिसर धर्म और राजनीति के बीच महत्वपूर्ण अंतरफलक की पृष्ठभूमि में विकसित हुए हैं। कला और वास्तुकला की नयी ऐतिहासिक विधाओं से भी इनके अध्ययन की ज़रूरत है। इसके अतिरिक्त मुगल कालीन भारत और शुरुआती आधुनिक काल की विभिन्न राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक पहलुओं पर किए जा रहे नए शोध कार्य को हिंदी में लाने की आवश्यकता है। देशज भाषाई साहित्य के अध्ययन ने क्षेत्रीय इतिहास के महत्त्व को भी उजागर किया है। इस नए क्षेत्रीय इतिहास को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है। दिल्ली सल्तनत के अलावा, बंगाल एवं दकनी सल्तनत तथा विजयनगर साम्राज्य खास तौर से महत्वपूर्ण हैं। इन सब पर हो रहे नए काम को कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए। साथ ही, इस नए काम को हिंदी में भी अनुदित किया जाना आवश्यक है।

 

डॉ आशुतोष कुमार मुबारकबाद के मुस्तहिक़ हैं कि इन्होंने हिंदी में इस किताब को लिखकर वक़्त की एक अहम ज़रुरत को पूरा करने की कोशिश की है। 

 

प्रोफेसर रज़ीउद्दीन अक़ील 

इतिहास विभाग 

दिल्ली विश्वविद्यालय 

दिल्ली - 7 

Comments

Popular Posts