मिथ्या और झूठे प्रचार के दौर में शोध और ज्ञान का महत्त्व

 रजीउद्दीन अकील 


आज के रक्तरंजित राजनीतिक माहौल में विचारधाराओं की जंग और इतिहास के दुरूपयोग के सन्दर्भ में ऐतिहासिक विधियों और दर्शन से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण विषय-वस्तु को समझना जरूरी है। विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों से बाहर सार्वजनिक ज्ञान-क्षेत्र में पहचान की राजनीति (हिन्दू-मुसलमान, जात-पात, राष्ट्रवाद, क्षेत्रीयता या भाषाई शिनाख्त के मुद्दे) और इससे जुड़े संघर्ष में इतिहास का इस्तेमाल एक हथखंडे के रूप में किया जाता है। इस तरह की राजनीतिक जोड़-तोड़ में ऐतिहासिक साक्ष्यों और तथ्यों पर सामाजिक स्मृतियों और मान्यताओं को तरजीह दी जाती है। तथ्य और सत्य को मिथ्या और झूठे प्रचार से दबा दिया जाता है। अकादमिक संस्थानों में अपनी पैठ बना लेने वाले ऐसे तत्त्व तथ्यों की व्याख्या और विवेचन में अपने पूर्वाग्रह की सड़ांध फैलाकर ऐतिहासिक विमर्श को भी दूषित कर देते हैं। इस तरह की व्याख्याएं ऐतिहासिक कम और राजनीतिक प्रोपेगेंडा ज्यादा हो जाती हैं। 


अकादमिक, प्रोफेशनल या पेशेवर इतिहास की बुनियादी रुपरेखा पर नजर डालें तो यह आज की राजनीति से परे भूतकाल से जुड़े मुद्दों, घटनाओं और प्रश्नों का खुद उनके सन्दर्भ में ऐतिहासिक महत्त्व को समझने का एक निरंतर प्रयास है। यह कार्य स्रोतों - साक्ष्यों और तथ्यों - के प्रति सच्ची निष्ठा से किया जाता है, ठीक उसी तरह जैसे न्यायालयों में जजों से अपेक्षा की जाती है। इस तरह यह काम पूरी जिम्मेदारी, ईमानदारी, निर्पेक्ष और वस्तुनिष्ठ तरीके से तथ्यों के आधार पर किया जाता है। यह संभव है कि तथ्यों की व्याख्या और विवरण में पूर्वाग्रह और वस्तुनिष्ठता का सवाल खड़ा हो। लेकिन नैरेटिव या आख्यान को राजनीति से प्रेरित होने के बजाय ऐतिहासिक पद्धत्ति और शोध के पैमाने पर खरा होना चाहिए। यह आख्यान गद्य या पद्य में भी हो सकते हैं, जैसा कि हम प्राचीन और मध्यकालीन काव्यों में देखते हैं - यानी इतिहास कविता की शक्ल में भी लिखा जा सकता है, बशर्ते उनमें जान बूझकर यथार्थ, सत्यता या वास्तविकता को तिलांजलि न दे दी गई हो। 


आज भी कि इतिहासलेखन सच के पैमाने पर झूझ रहा है, साक्ष्यों और तथ्यों की प्रमाणिकता के आधार पर प्रासंगिक ऐतिहासिक प्रश्नों के विश्लेषण का काम इतिहासकार विभिन्न पारंपरिक और नए तरीकों से कर रहे हैं। वह इस ऐतिहासिक धारणा पर कायम हैं कि इतिहासकारों की उनकी समकालीन सामाजिक और राजनीतिक विचारधाराओं से प्रतिबद्धता इतिहास में निष्पक्षतावाद के आदर्शों से असंगत है। इस तरह एक ऐसे दौर में, जब विघटनकारी राजनीति ने लोगों को वैमनस्य का जहर पिलाकर समाज को दो या उससे अधिक टुकड़ों - हम और वह अथवा दोस्त और दुश्मन - में बांटकर एक दूसरे के सामने खड़ा कर दिया है, इतिहासकार या तो ऐसी घटिया दर्जे की राजनीति का शिकार हो सकता है या राजनीतिक दबाव या लालच से ऊपर उठकर विद्धवता की नई मिसाल कायम कर सकता है। अच्छे इतिहासकारों से यह उम्मीद की जाती है कि वह अपने समय की ओछी राजनीति से अपना दामन बचाकर विद्धवता की उत्कृष्टता को अपने ईमान और दर्शन का पैमाना समझें। ऐसा करने वाले इतिहासविद ऐतिहासिक विमर्श के नए आयाम को तलाश रहे होते हैं, ताकि शोध के पैरामीटर्स या परिधि को जरुरी विस्तार या फैलाव प्रदान किया जा सके। 


इसके साथ ही, व्हाट्सप्प यूनिवर्सिटी से किए जा रहे मिथ्या प्रचार का जवाब भी ऐतिहासिक शोध और परिप्रेक्ष में देना जरुरी है। पिछले दो-तीन दशकों में, साहित्य और इतिहास के बीच के अंतर और अंतर्संबंधों को उजागर करते हुए उत्तर-आधुनिकतावादी चुनौतियों को भी निरंतर जवाब देने की आवश्यकता पड़ी है। ऐतिहासिक शोध को पूरी तरह निरर्थक, मनगढ़ंत और भाषाई जालसाजी करार देने वाले विरोधी तत्त्व भी अब समकालीन इतिहासलेखन के महत्त्व को पूरी तरह नहीं नकार रहे हैं। इतिहाकारों ने भी साहित्य और जेंडर स्टडीज से निकलकर आने वाले प्रश्नों के सन्दर्भ में शरीर, कामुकता और आध्यात्मिकता के बीच के प्रतिछेदन के विश्लेषण को समकालीन ऐतिहासिक शोध का प्रमुख मुद्दा बनाया है। और यह काम हवा में नहीं होता है, बल्कि यह समझने का प्रयास किया जाता है कि किस तरह का राजनीतिक सन्दर्भ कैसे सामाजिक तानों-बानों की तश्कील करता है। किस राजनीतिक सन्दर्भ में कैसा साहित्य निकलकर आता है, और कैसी राजनीति कैसा समाज बनाती है। आज की राजनीति व्हाट्सअप फॉरवर्ड के सहारे जहालत के अखाड़े में ज्ञान के उत्कृष्ट धरोहरों को मिसमार करना चाहती है। वहीं दूसरी ओर, हाल के ऐतिहासिक अध्ययन ने हाशिए पर धकेले गए लैंगिक पहचान और दूसरी विशिष्ट शिनाख्त को भी पुनर्जीवित कर दिया है। इसका मतलब यह है कि खेल अभी बाकी है। लेकिन किसी वर्ग विशेष द्वारा अपने राजनीतिक वर्चस्व की बुनियाद पर मनमानी चलाने की एक सीमा है। यहाँ इतिहास से सबक सीखने की जरुरत है। 


अंग्रेजी औपनिवेशिक काल से पहले के भारत में (मध्ययुगीन और शुरुआती आधुनिक दौर में) तुर्क, अफगान और मुगल शासन से संबंधित दुष्प्रचार ने एक तरह से उस दौर के इतिहास को और भी सार्थक बना दिया है। विशेषकर, मध्यकालीन भारत का समुचित ज्ञान इतिहासलेखन के पेशेवर-शैक्षणिक और गैर-शैक्षणिक रुपों के बीच के तनाव को कम कर सकता है, बशर्ते कि राजनीतिक तांडव और लोभ सार्वजानिक ज्ञान-क्षेत्र को पूरी तरह गर्त में धकेल कर न छोड़ दें। विद्धवता और राजनीति के बीच शर्मो-हया की लक्ष्मण रेखा कायम रहे। 


हिन्दू-मुस्लिम, मंदिर-मस्जिद, जात-पात, क्षेत्रीयता और संकुचित राष्ट्रवाद की राजनीति में इतिहास का दुरुपयोग न स्वच्छ राजनीति के लिए अच्छा है और न ही ऐतिहासिक ज्ञान की न्यूनतम जरुरत के लिए। पढ़ी-लिखी, समझदार जनता के लिए इतिहास का ज्ञान आवश्यक है। मनुष्य ने प्राचीनतम काल से इतिहास रचा है। मध्यकालीन भारत में इतिहासलेखन की विशाल और जीवंत परम्पराएं देखने को मिलती हैं। यह परम्पराएं संस्कृत और फारसी सहित विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं और नाना प्रकार की शैलियों में पायी जाती हैं। इनका अध्ययन एक सभ्य समाज के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है। और एक सभ्य समाज का पुनर्निर्माण आज वक्त की जरुरत है। 


मध्ययुगीन और प्रारंभिक आधुनिक भारत की विभिन्न सांस्कृतिक प्रथाएं, बौद्धिक परम्पराएं, एवं धार्मिक प्रतिद्वंदिता के साथ-साथ राजनीतिक संरक्षण और दुरुपयोग के सवाल आदि मिलकर हमारी सांस्कृतिक विरासत का निर्माण करते हैं जो पिछली शताब्दियों से होकर हम तक पहुँची हैं और जिन्हें बहुलतावादी विविधता को बनाए रखने के लिए संरक्षित किया जा सकता है। इसके बरअक्स, निर्मित विरासत (ऐतिहासिक स्मारकों, वास्तुकला, आदि) सहित इन सांस्कृतिक धरोहरों को एक ऐसे समाज के निर्माण के लिए ध्वस्त भी किया जा सकता है जो अपने ही अतीत से अनभिज्ञ है। राजनीतिक पीड़ा से ग्रसित ऐसे समाज के ताने-बाने अंततः छिन्न-भिन्न होकर अपने समय और स्थान की सांस्कृतिक दरिद्रता और खोखलेपन का परिचायक बनते हैं। वहीं दूसरी ओर, ऐतिहासिक ज्ञान से लबरेज बौद्धिक चेतना एक ऐसे समाज को संवारती है जहाँ घरों और संस्थानों के दरवाजे और खिड़कियाँ सांस्कृतिक चिन्ह्कों की आवाजाही के लिए खुले हुए होते हैं, और लोग बंद बक्सों में छुपे चूहे बनकर नहीं रह जाते। 


ऐतिहासिक रूप से, सांस्कृतिक विविधता हमारे राष्ट्रीय और सभ्यतागत चरित्र का प्रतीक है। दूसरी ओर, सांप्रदायिकता और कट्टरवाद की विनाशकारी खींचतान से समाज बुरी तरह आहत होता रहा है। धर्म के नाम पर की जानेवाली राजनीतिक लामबंदी देश और समाज को हर कालखंड में प्रभावित करती रही है, लेकिन इतिहास गवाह है कि इस तरह की ओछी राजनीति अंततः पूरी तरह डिसक्रेडिट या कलंकित हो जाती है। क्योंकि सांस्कृतिक धरोहरों की नींव काफी मजबूत, समावेशी, और एकीकृत है। रामायण और महाभारत जैसे महाग्रंथों के संस्कृत और देशज भाषाओं में पाए जाने वाले विभिन्न रूपों, आदिग्रन्थ (गुरु ग्रन्थ साहिब) में सम्मिलित संतों और गुरुओं के आध्यात्मिक उपदेश, मलिक मोहम्मद जायसी जैसे सूफी कवियों द्वारा रचित प्रेमाख्यान (पद्मावत), मध्यकालीन इतिहासकारों की संस्कृत, फारसी और देशज भाषाओं में लिखी गयीं ऐतिहासिक कृतियाँ और मुगल दौर की अकबरी विचारधारा का बखान करती अकबरनामा और आईन-ए-अकबरी के अतिरिक्त विभिन्न काल और क्षेत्रों की साहित्यिक रचनाएँ तथा स्थापत्य एवं चित्रकला की अनगिनत मिसालें भारतीय संस्कृति की एक समेकित रुपरेखा पेश करती हैं। इन सबको मिटाकर देश और समाज को हमेशा के लिए बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता है। 

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