उर्दू अफ़साना, कहानी: एक हाथ का आदमी
लेखक: अंजुम उसमानी
हिंदी अनुवाद: रज़ीउद्दीन अक़ील
एक हाथ का आदमी
बात अब बर्दाश्त से बाहर हो चुकी थी। बस्ती के ज्यादातर लोग अपने आप से शर्मिंदा और एक दूसरे के सामने खुद को चोर महसूस कर रहे थे, जबकि बस्ती का हर काम ज्यों का त्यों जारी था, खेतों में हल भी चल रहे थे और फाइलों पर कलम भी। मगर बेशतर लोग अपने कामों को सिर्फ आदत के तौर पर अंजाम दे रहे थे और खुद शर्मिंदगी के एहसास से परेशान थे।
हुआ यूं था कि एक दिन बस्ती के लोगों ने महसूस किया कि वह जो काम अपने दाएं हाथ से अंजाम देते रहे हैं वह उनका बायां हाथ अंजाम दे रहा है।
शुरु-शुरु में लोगों ने इस पर बहुत ज्यादा ध्यान नहीं दिया और इसे अपना वहम समझे, मगर धीरे-धीरे उन्हें लगने लगा कि कोई अनदेखी ताकत उन खास कामों को भी बाएं हाथ से अंजाम देने पर मजबूर कर रही हैं जिन्हें वह हमेशा से दाएं हाथ से करते रहे हैं और उनका दाहिना हाथ तो आहिस्ते-आहिस्ते फालिज का शिकार होता हुआ खत्म होता जा रहा है।
शुरु में बस्ती का हर आदमी यही समझता रहा कि इस बीमारी का शिकार सिर्फ वही है और बाकी लोग अपना काम मामूल के मुताबिक अंजाम दे रहे हैं। इसलिए शर्मिंदगी को छुपाने के लिए कोई इस तबदीली का जिक्र किसी से न करता, लेकिन धीरे-धीरे सबको यह अंदाजा होने लगा कि यह एक सामूहिक प्रकोप है जिसने बहुत से लोगों को अपने चपेट में ले लिया है। वह किताबों में पढ़ और अपने बुजुर्गों से सुन चुके थे कि:
"एक दिन वह आएगा जब बुरे काम अंजाम देने वाले अपने कर्मों का लेखा-जोखा बाएं हाथ में लिए एक तरफ होंगे और नेक काम करने वाले अपने कर्मों का लेखा-जोखा दाएं हाथ में लिए दूसरी तरफ --- और तब सूरज बाएं हाथ वालों के सिर के ठीक ऊपर इस तरह सवार होगा कि दिमाग खौलती हांडी की तरह गर्म हो जाएंगे, लोग एक दूसरे से ऐसे बेपरवाह हो जाएंगे कि मां-बाप औलाद को, औलाद मां-बाप को पहचानने से इंकार कर देगी और दाएं हाथ वाले बाएं हाथ वालों की तरफ पलट कर न देखेंगे।"
इस तरह बस्ती के बहुत से लोगों ने इस वबाल से निजात पाने के उपाय की उम्मीद लिए उन लोगों से मशविरा किया जिनके बारे में समझा जाता था कि वह न सिर्फ अपने दाएं और बाएं हाथ के कामों में फर्क रख पाते हैं बल्कि वह रोगों और आपदाओं के रोकथाम की राह से भी वाकिफ हैं। लेकिन बस्ती वालों को मायूसी हुई जब उन लोगों ने बेधड़क ऐलान किया कि:
"ऐसे लोग झूठे, वहमी और बीमार हैं। इस तरह के अजाब नाजिल होने की कोई खबर नहीं है, हर आदमी अपने दाहिने हाथ का काम दाहिने से और बाएं हाथ का काम बाएं से अंजाम दे रहा है, बस्ती के हर आदमी का दाहिना हाथ तो सलामत है। न दायां बाएं को रोक रहा है और न बायां दाएं को।"
इस ऐलान से बस्ती में और बेचैनी फैली और लोगों का उन पर से भरोसा उठ गया जिनके बारे में ख्याल था कि वह इस मुसीबत से पीछा छुड़ाने का रास्ता बताएंगे।
हालत दिन-ब-दिन बिगड़ती जा रही थी, कुछ लोगों ने खाना-पीना भी छोड़ दिया था कि उन्हें लगता कि वह दाएं के बजाय बाएं हाथ से खा और पी रहे हैं और बाएं हाथ से तो उन्होंने अभी-अभी गंदगी साफ की थी। घिन्न और गलाजत के एहसास की वजह से वह खा पाते और न पी पाते। नतीजे में लोग भूख और प्यास से मरने लगे और बस्ती में दुःख, खौफ और लाचारगी और भी बढ़ती चली गई। इसके बावजूद, बस्ती में डंके की चोट पर यह नारा लगातार गूंज रहा था कि "सब ठीक-ठाक है।"
चंद लोगों का अब भी यही ख्याल था कि कुछ मौका-परस्त लोग "दाएं और बाएं बाजू" का झगड़ा खड़ा करके जानबूझ कर बेचैनी पैदा कर रहे हैं, ताकि एक खास गिरोह के लोगों को उनके मुकाम से गिराया जा सके। उधर कुछ लोग आहिस्ते-आहिस्ते इस रोग से इस हद तक ग्रसित हो चुके थे कि खुल्लम-खुल्ला बगैर किसी शर्म के अपने दाहिने हाथ के काम भी बाएं हाथ से अंजाम देने लगे थे, मगर एक दिन उन्हें भी लगा कि हमारा दाहिना हाथ बेकार हो चुका है और अगर हम चाहें भी तो इससे काम नहीं ले सकते।
धीरे-धीरे यह विपत्ति और फैलती चली गई। बहुत कम लोग रह गए थे जो यह कह सकते थे कि उनका दायां हाथ तो बाएं हाथ से ज्यादा मजबूत है और वह इस अनदेखी ताकत के पंजे से महफूज हैं जो हर काम को बाएं से करने पर मजबूर करती है। यहां तक कि कलम ने भी अपना रुख बदल लिया, हरफों ने बनावट, लफ्जों ने मायने और जुमलों ने मतलब बदल लिए, जुबान के रुप, अलामतें और इशारे भी अपने उसूलों से फिर गए। अब बस्ती के हर आदमी पर जाहिर हो चुका था कि दूसरों को खब्बा या बाएं-हत्था कहने वाले भी इस मुसीबत में गिरफ्तार हैं और उनके भी दाएं हाथ को बायां निगल चुका है।
सारी बस्ती खब्बी या बाएं-हत्थी हो चुकी थी और मायूसी में मुबतला थी कि बस्ती से फरार के सारे रास्ते भी बंद थे और आसपास की बस्तियों के लोग किसी कीमत पर इसके लिए तैयार न थे कि किसी रोग के शिकार लोग रोग समेत सीमा पार कर के उनके यहां घुस आएं। इसलिए बस्ती के सारे लोग एक जगह जमा हुए ताकि सामूहिक आफत से छुटकारे का रास्ता तलाश कर सकें कि अचानक भीड़ में एक नामालूम छोर से एक ऐसा आदमी उभर कर निकला जिसका चेहरा शिनाख्त के काबिल नहीं था और जिसका एक हाथ सिरे से गायब था। सारी भीड़ का रुख उस एक हाथ वाले आदमी की तरफ मुड़ गया, मगर किसी में हिम्मत न थी कि कुछ पूछ सके। एक हाथ वाले आदमी ने एक निगाह सारी भीड़ पर डाली, अपने इकलौते हाथ को सिर से बुलंद किया और सारी भीड़ कुछ सोचती हुई चुप-चाप बिखर गई।
अगली सुबह उन्होंने देखा कि बस्ती के सारे बच्चे दाहिने हाथ वाले काम भी बाएं हाथ से अंजाम दे रहे हैं और उनके भोले चेहरे पर किसी तकलीफ और सख्ती के लक्षण नहीं।
स्रोत: नया उर्दू अफ़साना: इंतिख़ाब, तजज़िये और मबाहिस, संपादक गोपी चंद नारंग, देहली: उर्दू अकादेमी, 2010.
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