उर्दू अफ़साना, कहानी: हजारों साल लंबी रात

लेखक: रतन सिंह 

हिंदी अनुवाद: रज़ीउद्दीन अक़ील 

हजारों साल लंबी रात 

सुनने वाले उसकी बात को बड़े ध्यान से सुन रहे थे। हालांकि सुनाने वाला जो उन सबके बीच लेटा हुआ था, बिलकुल उटपटांग बातें कर रहा था। उनमें कहीं कोई ओर-छोर नहीं था। बात करता-करता वह खुद ही बहक जाता जैसे राह चलता मुसाफिर अपनी राह से भटक कर किसी गलत रास्ते पर चलने लगे। एक बात अधूरी ही छोड़कर वह किसी दूसरी बात का सिरा पकड़ लेता। इस तरह रात बहुत धीरे-धीरे सरक रही थी। 

वह सब के सब रेलवे स्टेशन की तरफ जाने वाले बाजार की एक दुकान के बरामदे में आकर रात काटने के लिए लेट गए थे। थोड़ी देर बाद उनमें से सबसे बूढ़े आदमी ने गला साफ करते हुए किसी राजा की बात शुरु की तो उस बरामदे में लेटे सब के सब आदमी हुंकारी भरने लगे - "हूं, फिर क्या हुआ बाबा?"

बस फिर क्या था बात चल निकली....

एक बादशाह था उसकी सात रानियां थीं। 

सातों रानियों के लिए बादशाह ने अलग-अलग महल बनवाए। एक लकड़ी का, दूसरा ईंट-गारे का, तीसरा संगमरमर का, चौथा तांबे का, पांचवां चांदी का, छटा सोने का और सातवें में हीरे-जवाहिरात जड़े थे। 

"बिलकुल ठीक", किसी ने हुंकारी भरी। 

इतनी दौलत होने पर भी बादशाह के यहां औलाद नहीं थी। इसलिए वह बहुत दुखी था। बादशाह को आखिर किसी ने राय दी कि फलां जंगल में एक पेड़ है उस पर सात फल लगे हैं। अगर बादशाह फलों को तोड़कर अपनी रानियों को खिलाए तो सबको औलाद हो जाएगी। लेकिन मुसीबत यह थी कि उस पेड़ तक पहुंचना बड़ा मुश्किल था। रास्ते में सात नदियां पड़ती थीं और सात राक्षसों से मुकाबला करना पड़ता था और पेड़ के चारों ओर सात सांपों का जबरदस्त पहरा था। लेकिन बादशाह भी अपनी धुन का पक्का था और वह अपना लाओ-लश्कर लेकर चल पड़ा। बात अभी यहीं तक पहुंची थी कि बूढ़े को खांसी का दौरा पड़ा। जब उसकी सांस दुरुस्त हुई तो बूढ़ा बहक गया। उसने एक दूसरी बात चला दी। 

बड़ी पुरानी बात है। एक कारीगर ने एक ऐसा डंडा बनाया जिसके अंदर एक आदमी बैठ सकता था। इस तरह वह डंडा आदमियों की तरह ही बोलता था, चलता था और खाता-पीता था। 

"ठीक-ठीक", करीब-करीब सब ने मिलकर हुंकार भरा। 

फिर अचानक यह हुआ कि रिक्शों और तांगों का रैला शोर मचाता हुआ सड़क पर से गुजरने लगा। शायद स्टेशन पर कोई सवारी गाड़ी रुकी थी। इसलिए बूढ़ा थोड़ी देर रुका। फिर उसने एक मछली की बात शुरु कर दी जो इतनी बड़ी थी कि उसकी पीठ पर बजाबता एक शहर बसा हुआ था। जिस पर न मालूम कितने ही मकान बने हुए थे, कितने ही खेत थे। समुंदर में जिस तरफ मछली जाती उस तरफ यह बसा-बसाया शहर चला जाता। 

"बिलकुल ठीक", सब ने हुंकार भरी। 

इस तरह रात निहायत आहिस्ता-आहिस्ता खिसक रही थी, बूढ़ा बातें किए जा रहा था और वह सब के सब बड़े गौर से सुन रहे थे। फिर किसी बात को अधूरी ही छोड़कर बूढ़े ने एक नई बात शुरु की। 

हजारों साल पहले की बात है एक बादशाह ने आधी दुनिया फतह कर ली।

"फिर।"

फिर इस खुशी में बादशाह ने एक बहुत बड़ी दावत दी।

"फिर...."फिर।"

फिर क्या इतना खाना बनाया गया कि बादशाह के शहर के सारे के सारे मकानों में खाना बना-बनाकर रखा गया। 

"फिर....फिर....फिर", सभी आदमी एक साथ हुंकारी भर रहे थे। 

बूढ़े ने कहना शुरु किया। 

सबसे पहले बादशाह और उसके रिश्तेदारों ने खाना खाया।

"ठीक।"

फिर बादशाह के सैकड़ों मंत्रियों और अधिकारियों ने खाना खाया। 

"ठीक।"

फिर बादशाह के हजारों फौजियों और चुने हुए शहरियों ने खाना खाया।

"ठीक।"

इतने लोगों के खाना खाते-खाते रात हो गई।

"ठीक।"

और सबके बाद रात के वक्त लाखों गरीब जनता और फकीरों ने पेट भर कर खाना खाया। 

"बिलकुल झूट, बिलकुल झूट।" उस बरामदे में लेटे हुए सभी आदमी विरोध करते हुए उठ खड़े हुए और उनमें एक आदमी बोला - "बुड्ढे तुझे झूटी बातें करते शर्म नहीं आती। अगर हमने रात को पेट भर कर खाना खाया होता तो इस वक्त चैन की नींद न सोए होते। रात भर तुम्हारी यह बकवास कौन सुनता?"

"अरे भाई, नाराज क्यों होते हो", बूढ़े ने कुछ सहमी हुई आवाज में कहा, "मैं भी तुम्हारी तरह भूखा हूँ। अगर मुझे ही नींद आ रही होती तो यह बातें करने के लिए जागता होता। मैं भी....तो सो जाता।"


स्रोत: नुमाइंदा उर्दू अफ़साने, संपादक क़मर रईस, देहली: उर्दू अकादेमी, 2003. 

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