उर्दू कहानी, अफ़साना: पीतल का घंटा

लेखक: क़ाज़ी अब्दुस सत्तार (1933-2018)

हिंदी अनुवाद: रज़ीउद्दीन अक़ील 


पीतल का घंटा 

आठवीं बार हम सब मुसाफिरों ने लॉरी को धक्का दिया और ढकेलते हुए बहुत दूर तक चले गए लेकिन इंजन गिन-गिनाया तक नहीं। ड्राइवर गर्दन हिलाता हुआ उतर पड़ा। कंडक्टर सड़क के किनारे एक पेड़ की जड़ पर बैठ कर बीड़ी सुलगाने लगा। मुसाफिरों की नजरें गालियां देने लगीं और होंठ बड़-बड़ाने लगे। मैं भी सड़क के किनारे सोचते हुए दूसरे पेड़ की जड़ पर बैठ कर सिगरेट बनाने लगा। एक बार निगाह उठी तो सामने दो दरख्तों की चोटियों पर मस्जिद के मीनार खड़े थे। मैं अभी सिगरेट सुलगा ही रहा था कि एक मजबूत खुरदुरे देहाती हाथ ने मेरी चुटकियों से आधी जली हुई तीली निकाल ली। मैं उसकी इस बेहूदा हरकत से खीजता हुआ चौंक पड़ा। मगर वह आराम से अपनी बीड़ी जला रहा था। वह मेरे पास ही बैठ कर बीड़ी पीने लगा या बीड़ी खाने लगा। 

"यह कौन गांव है?" मैं ने मीनारों की तरफ इशारा करके पूछा। 

"यो......यो भुसौल है।"

भुसौल का नाम सुनते ही मुझे अपनी शादी याद आ गयी। मैं अंदर सलाम करने जा रहा था कि एक बुजुर्ग ने टोक कर रोक दिया। वह क्लासिकी काट की बनात की अचकन और पूरे पायचे का पाजामा और फर की टोपी पहने मेरे सामने खड़े थे। मैं ने सर उठा कर उनकी सफैद पूरी मूंछें और हुकूमत से सींची हुई आँखें देखीं। उन्होंने सामने खड़े हुए खिदमतगारों से फूलों की बद्धियां ले लीं और मुझे पहनाने लगे। मैं ने बल खाकर अपनी बनारसी की पोत की झिलमिलाती हुई शेरवानी की तरफ इशारा करके तल्खी से कहा - "क्या यह काफी नहीं थी?" वह मेरी बात पी गए। बद्धियां बराबर कीं। फिर मेरे नंगे सिर पर हाथ फेरा और मुस्कुरा कर कहा - "अब तशरीफ़ ले जाइये।" मैं ने ड्योढ़ी पर किसी से पूछा कि यह कौन बुजुर्ग थे। बताया गया कि यह भुसौल के काजी ईनाम हुसैन हैं। 

भुसौल के काजी ईनाम हुसैन, जिनकी हुकूमत और दौलत के अफसाने मैं अपने घर में सुन चुका था। मेरे बुजुर्गों से उनके जो रिश्ते थे, मुझे मालूम थे। मैं अपनी गुस्ताखी पर शर्मिन्दा था। मैं ने अंदर से आकर कई बार मौका ढूंढकर उनकी छोटी-मोटी खिदमतें अंजाम दीं। जब मैं चलने लगा तो उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रख दिया, मुझे भुसौल आने की दावत दी और कहा कि इस रिश्ते से पहले भी तुम मेरे बहुत कुछ थे, लेकिन अब तो दामाद हो गए हो। इस तरह के रस्मी जुमले सभी कहते हैं लेकिन उस वक्त उनके लहजे में खुलूस की ऐसी गर्मी थी कि किसी ने यह जुमले मेरे दिल पर लिख दिए। 

मैं थोड़ी देर खड़ा बिगड़ी "बस" को देखता रहा। फिर अपना बैग झुलाता हुआ जुते हुए खेतों में इठलाती हुई पगडंडी पर चलने लगा। सामने वह शानदार मस्जिद खड़ी थी, जिसे काजी ईनाम हुसैन ने अपनी जवानी में बनवाया था, मस्जिद के सामने मैदान के दोनों तरफ टूटे-फूटे मकान का सिलसिला था, जिनमें शायद कभी भुसौल के जानवर रहते होंगे, ड्योढ़ी के बिलकुल सामने दो ऊँचे आम के पेड़ ट्रैफिक के सिपाही की तरह छतरी लगाए खड़े थे। उनके तने जल गए थे। जगह-जगह मिट्टी भरी थी। ड्योढ़ी के दोनों तरफ इमारतों के बजाय इमारतों का मलबा पड़ा था। 

दिन के तीन बजे थे। वहां उस वक्त न कोई आदम था न आदमजाद कि ड्योढ़ी से काजी साहब निकले। लंबे कद के झुके हुए, डोरिये की कमीज, मैला पायजामा और मोटर टायर के तलवों का पुराना पम्प पहने हुए, माथे पर हथेली का छज्जा बनाए मुझे घूर रहे थे। मैं ने सलाम किया। जवाब देने के बजाय वह मेरे करीब आए और जैसे एक दम खिल गए। मेरे हाथ से मेरा बैग छीन लिया और मेरा हाथ पकड़े हुए ड्योढ़ी में घुस गए। 

हम उस चक्कर-दार ड्योढ़ी से गुजर रहे थे जिसकी अंधेरी छत कमान की तरह झुकी हुई थी। धुनियों को घुने हुए बदसूरत शहतीर रोके हुए थे। वह ड्योढ़ी से चिल्लाए - "अरे सुनती हो, देखो तो कौन आया है, मैं ने कहा अगर संदूक-वंदूक खोले बैठी हो तो बंद कर लो जल्दी से।" लेकिन दादी तो सामने ही खड़ी थीं, धुले हुए घड़ों-घड़ोंची के पास। दादा उनको देखकर सिटपिटा गए। वह भी शर्मिन्दा खड़ी थीं, फिर उन्होंने लपक कर अलगनी पर पड़ी मारकीन की धुली चादर घसीट ली और दुपट्टे की तरह ओढ़ ली। चादर के एक सिरे को इतना लंबा कर दिया कि कुर्ते के दामन में लगा दूसरे कपड़े का चमकता पेवन्द छुप जाए। 

इस एहतिमाम के बाद वह मेरे पास आयीं। कांपते हाथों से बलाएं लीं। सुख और दुःख की गंगा-जमनी आवाज में दुआएं दीं। दादी कानों से मेरी बात सुन रही थीं लेकिन हाथों से जिन की झुर्रियां भरी खाल झूल गई थी, दालान के इकलौते साबुत पलंग को साफ कर रही थीं, जिस पर मैले कपड़े, कत्थे-चूने की किलहियां और पान की डालियां ढेर थीं, और आँखों से कुछ और सोच रही थीं। मुझे पलंग पर बिठा कर दूसरे झूला जैसे पलंग के नीचे से वह पंखा उठा लायीं जिसके चारों तरफ काले कपड़े की गोट लगी थी और खड़ी हुई मेरे उस वक्त तक झलती रहीं जबतक मैं ने छीन न लिया। 

फिर वह बावरची-खाने में चली गईं। वह एक तीन दरों का दालान था। बीच में मिट्टी का चूल्हा बना था। अलमुनियम की चंद मैली पतीलियां, कुछ पीपे, कुछ डिब्बे, कुछ शीशे की बोतल और दो-चार इसी किस्म की छोटी-मोटी चीजों के अलावा वहां कुछ भी न था। वह मेरी तरफ पीठ किए चूल्हे के सामने बैठी थीं। दादा ने कोने में खड़े हुए पुराने हुक्के से बे-रंग चिलम उतारी और बावरची-खाने में घुस गए। मैं उन दोनों की घन-घन करती सरगोशियां सुनता रहा। दादा कई बार जल्दी-जल्दी बाहर गए और आए। 

मैं ने अपनी शेरवानी उतारी, इधर-उधर देखकर छह दरवाजों वाले कमरे के किवाड़ पर टांग दी। किवाड़ को दीमक चाट गई थी। एक जगह लोहे की पत्ती लगी थी लेकिन बीचों-बीच गोल दायरे में हाथी दांत का काम, कत्थे और तेल के धब्बों में जगमगा रहा था। बैग खोलकर मैं ने चप्पल निकाले और जबतक मैं दौड़ता दादा घड़ोंची से घड़ा उठाकर उस लंबे-चौड़े कमरे में रख आए जिस में एक भी किवाड़ न था। सिर्फ घेरे लगे खड़े थे। जब मैं नहाने गया तो दादा अलमुनियम का लोटा मेरे हाथ में पकड़ा कर मुजरिम की तरह बोले - "तुम बेटे इतमिनान से नहाओ। इधर कोई नहीं आएगा। परदे तो मैं डाल दूं लेकिन अंधेरा होते ही चमगादड़ घुस आएगी और तुमको परेशान करेगी।"

मैं घड़े को एक कोने में उठा ले गया। वहां दीवार से लगा, अच्छी-खासी सेनी के बराबर पीतल का घंटा खड़ा था। मैं ने झुक कर देखा। घंटे में मुंगरियों की मार से दाग पड़ गए थे। दो अंगुल का हाशिया छोड़कर जो सुराख था, उसमें सूत की काली रस्सी पड़ी थी। उस सुराख के बराबर एक बड़ा सा चाँद था, उसके ऊपर सात पहल का सितारा था। मैं ने तौलिया के कोने से झाड़कर देखा तो वह चाँद-तारा भुसौल स्टेट का मोनोग्राम था। अरबी लिपि में "काजी ईनाम हुसैन ऑफ़ भुसौल स्टेट अवध" खुदा हुआ था। यही वह घंटा था जो भुसौल की ड्योढ़ी पर ऐलाने-रियासत के तौर पर तकरीबन एक सदी से बजता चला आ रहा था। मैं ने उसे रौशनी में देखने के लिए उठाना चाहा लेकिन एक हाथ से न उठा सका। दोनों हाथों से उठाकर देखता रहा। 

मैं देर तक नहाता रहा। जब बाहर निकला तो आँगन में काजी ईनाम हुसैन पलंग बिछा रहे थे। काजी ईनाम हुसैन जो गद्दी पर बिठाए गए थे, जिनके लिए बंदूकों का लाइसेंस जरुरी नहीं था, जिन्हें हर अदालत तलब नहीं कर सकती थी। दोनों हाथों पर खिदमत-गारों की तरह तबाक (थाल) उठाए हुए आए। जिसमें अलग-अलग रंगों की दो प्यालियां "लब-सोज़" लब बंद चाय से लबरेज रखी थीं। एक बड़ी सी प्लेट में दो उबले हुए अंडे काट कर फैला दिए गए थे। शुरु अक्तूबर की खुश-गवार हवा के रेशमी झोंकों में हमलोग बैठे नमक पड़ी हुई चाय की चुसकियां ले रहे थे कि दरवाजे पर किसी बूढ़ी आवाज ने हांक लगाई। 

"मालिक!"

"कौन?"

"मेहतर है आपका। साहेब जी के बुलाबे आय है।"

दादा ने घबरा कर एहतियात से अपनी प्याली तबाक में रखी और जूते पहनते हुए बाहर चले गए। अपने पिछले दिनों में तो इस तरह शायद वह कमिश्नर के आने की खबर सुनकर भी न निकले होंगे। 

मैं एक लंबी टहल लगा कर जब वापस आया, ड्योढ़ी में मिट्टी के तेल की डिबया जल रही थी। दादा बावरची-खाने में बैठे चूल्हे की रौशनी में लालटेन की चिमनी जोड़ रहे थे। मैं ड्योढ़ी से डिबया उठा लाया और इसरार करके उनसे चिमनी लेकर जोड़ने लगा। 

हाथ भर लंबी लालटेन की तेज गुलाबी रौशनी में हमलोग देर तक बैठे बातें करते रहे। दादा मेरे बुजुर्गों से अपने ताल्लुकात बताते रहे। अपनी जवानी के किस्से सुनाते रहे। कोई आधी रात के करीब दादी ने जमीन पर चटाई बिछाई और दस्तरखान लगाया। बहुत सी अन-मेल, बेजोड़, असली चीनी की प्लेटों में बहुत सी किस्मों का खाना चुना। शायद मैं ने आजतक इतना उमदा खाना नहीं खाया। 

सुबह मैं देर से उठा। यहां से वहां तक पलंग पर नाश्ता चुना हुआ था। देखते ही मैं समझ गया कि दादी ने रात भर नाश्ता पकाया है। जब मैं अपना जूता पहनने लगा तो रात की तरह इस वक्त भी दादी ने मुझे आंसू भरी आवाज से रोका। मैं माफी मांगता रहा, दादी खामोश खड़ी रहीं। जब मैं शेरवानी पहन चुका, दरवाजे पर इक्का आ गया, तब दादी ने कांपते हाथों से मेरे बाजू पर इमाम-ज़ामिन बांधा। उनके चेहरे पर चूना पुता हुआ था। आँखें आंसुओं से छलक रही थीं। उन्होंने रुंधी हुई आवाज में कहा - "यह इकावन रुपए तुम्हारी मिठाई के हैं और दस किराए के।"

"अरे....अरे दादी....आप क्या कर रही हैं!" अपनी जेब में जाते हुए रुपयों को मैं ने पकड़ लिए। 

चुप रहो तुम....तुम्हारी दादी से अच्छे तो ऐसे-वैसे लोग हैं, जो जिसका हक होता है वह दे तो देते हैं, गजब खुदा का, तुम जिंदगी में पहली बार मेरे घर आओ, और मैं तुमको जोड़े के नाम पर एक चट भी न दे सकूं....मैं....भैया....तुम्हारी दादी तो फकीरन हो गई....भिखारन हो गई। 

मालूम नहीं कहां-कहां का जख्म खुल गया था। वह धारों धार रो रही थीं। दादा मेरी तरफ पीठ किये खड़े थे और जल्दी-जल्दी हुक्का पी रहे थे। मुझे रुखसत करने दादी ड्योढ़ी तक आयीं लेकिन मुंह से कुछ न बोलीं। मेरी पीठ पर हाथ रखकर और गर्दन हिलाकर रुखसत कर दिया। 

दादा काजी ईनाम हुसैन तालुकदार भुसौल थोड़ी देर तक इक्का के साथ चलते रहे लेकिन न मुझसे नजर मिलाई न मुझसे खुदा हाफिज कहा। एक बार निगाह उठाकर देखा और मेरे सलाम के जवाब में गर्दन हिला दी। 

सुधौली जहां से मुझे सीतापुर के लिए बस मिलती, अभी दूर था। मैं अपने ख्यालों में डूबा हुआ था कि मेरे इक्के को सड़क पर खड़ी हुई सवारी ने रोक लिया। जब मैं होश में आया तो मेरा इक्का वाला हाथ जोड़े मुझसे कह रहा था....मियां....अलि शाह जी भुसौल के साहूकार हैं। इनके इक्के का बम टूट गया है, आप बुरा न मानो तो अलि शाह बैठ जाएं। 

मेरी इजाज़त पाकर उसने शाह जी को आवाज दी। शाह जी रेशमी कुर्ता और महीन धोती पहने आए और मेरे बराबर बैठ गए और इक्के वाले ने मेरे और उनके सामने "पीतल का घंटा" दोनों हाथों से उठाकर रख दिया। घंटे के पेट में मुंगरी की चोट का दाग बना था। दो अंगुल के हाशिए पर सुराख में सूत की रस्सी पड़ी थी। उसके सामने काजी ईनाम हुसैन ऑफ़ भुसौल स्टेट अवध का चाँद और सितारे का मोनोग्राम बना हुआ था। मैं उसे देख रहा था और शाह जी मुझे देख रहे थे और इक्के वाला हम दोनों को देख रहा था। इक्के वाले से रहा न गया। उसने पूछ ही लिया। 

"का शाह जी घंटा भी खरीद लायो?"

"हाँ कल शाम का मालूम नाई, का वक्त पड़ा है मियां पर कि घंटा दै देहिन बुलाय के, अये...."

"हाँ वक्त वक्त की बात है....शाह जी नाहीं तो अये घंटा....

ए घोड़े की दुम रास्ता देख के चल"....यह कहकर उसने चाबुक झाड़ा। 

मैं....मियां का बुरा वक्त....चोरों की तरह बैठा हुआ था....मुझे मालूम हुआ कि यह चाबुक घोड़े के नहीं मेरी पीठ पर पड़ा है। 



स्रोत: मोहम्मद साकिब अनवर, उर्दू के चंद मक़बूल अफ़साने: तजज़िये और तबसिरे, नई दिल्ली: नूर पब्लिकेशन, 2014. 

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