लैंगिक इतिहास का एक उपेक्षित अध्याय

उर्दू शायरी में औरतों के मक़ाम और जलवे 

रज़ीउद्दीन अक़ील 


उर्दू शायरी इश्क और मोहब्बत के जज़बात की कसक से ओत-प्रोत रही है, लैंगिक बंधनों से आजाद और हर तरह के सामाजिक पूर्वाग्रह से ऊपर, फिर भी इस अदब और कला के इतिहास में महिला शायरात या कवयित्रियों को हाशिये पर ही रखा गया है। हम यहां उर्दू शायरों की जीवनियों में महिला शायरात के स्थान के हवाले से चंद मिसाल पेश करेंगे। शायरों के चरित्र-चित्रण के इतिहास को तज़किरे की संज्ञा दी गई है। इतिहास महत्वपूर्ण घटनाओं का लेखा जोखा पेश करता है और तज़किरा चरित के माध्यम से समय विशेष पर रौशनी डालता है। भूतकाल के सन्दर्भ में दोनों मिलकर साहित्यक-इतिहास का रुप धारण करते हैं, जो हमारी नई ऐतिहासिक बोध में खास अहमियत की हामिल है। साहित्य और इतिहास का यह आकर्षक मिश्रण अंतर्विषयक शोध और अध्ययन का एक अच्छा उदहारण बनता है। हम यहां इनके जेंडर या लैंगिक परिपेक्ष को भी जोड़ रहे हैं। 

उर्दू शायरों की जीवनी और उनके काव्यों का इतिहास 18वीं शताब्दी के मध्य से लिखा जाने लगा था। मीर तकी मीर का फारसी में लिखा हुआ उर्दू शायरों का तज़किरा, निकातुस-शोरा, इस शैली की बेहतरीन शुरुआती मिसाल है। इस कलासिकी अदब का एक उत्कृष्ट नमूना, नवाब मुस्तफा खान शेफ्ता की गुलशने बे-खार, दिल्ली से 1837 में छपकर मंजरे आम पर आ चुकी थी। इस किताब का एक उर्दू तर्जुमा हमीदा खातून ने कौमी कौंसिल बराए फरोग उर्दू जबान, नई दिल्ली, से 1998 में छपवाया था। 

उर्दू शायरी के दो सौ साला शानदार इतिहास को सैकड़ों शायरों की जीवनी में समेटते हुए, शेफ्ता ने यह अच्छा काम भी किया कि चंद महिला शायरात को इसमें शामिल कर लिया, यह और बात है कि महलका बाई चंदा और लुतफुन्निसा इम्तियाज जैसी बड़ी हस्तियां, जो 18वीं सदी के आखिरी दहाईयों में अपनी पुर-दर्द गजलों से परिपूर्ण दीवान मुकम्मल कर मशहूर हो चुकी थीं, बाहर रखी गईं। 

यह सर्वविदित है कि समाज और इतिहास ने हमेशा औरतों को दबा कर रखने में एक विचित्र आनंद उठाया है। शेफ्ता ने अपनी गुलशने बे-खार में जिन चंद शायरात को शामिल करने की मेहरबानी की है उनकी चर्चा यहां की जा रही है। शेफ्ता मिर्जा गालिब के परिचित लोगों में से थे और उन गिने-चुने लोगों में जिनकी गालिब कदर करते थे। गुलशने बे-खार के 1837 वाले संस्करण में किताब पर गालिब की तारीफ को भी शामिल किया गया था। और यह आखिरी मुगल बादशाहों का दौर था, जब औरतें सांस्कृतिक पटल पर अपने जलवे दिखा रही थीं, हालांकि उनके रोल को कोठों के नाच-गानों तक सीमित रखा जा रहा था। वह खुद बाजाब्ता शायरी कर रही हों और उनकी दीवानें छपें समाज और शायरों की बिरादरी इसके लिए अभी तैयार नहीं थी। यहां तक कि महिला-विषयक स्त्रीलिंग से आरास्ता रेख्ती शायरी भी चालू मर्द कवि लिख और पढ़कर मजे लूट रहे थे! ऐसे दौर में शेफ्ता के द्वारा महिला कवियों को अपने तजकिरे में शामिल करना सराहनीय है। 

वक़्त के मिज़ाज के मुताबिक शेफ्ता ने अमूमन शायरात की जिस्मानी खूबसूरती की ज्यादा तारीफ की है और उनके कलाम की कम, फिर भी उनके कहे गए अशआर को इस तरह पेश किया है कि पाठक उनके मूल्य को आसानी से समझ सकता है। उन शायरात की आजाद ख्याली और शायरी में भावनाओं के परवाज को भी बखूबी दर्शाया है। इनमें से कई मुगल सरदारों की बहु-बेटियां भी थीं, कई कोठे-वालियां, और कई आजाद। 

गुलशने बे-खार (पृष्ठ 119) में है कि बहु बेगम के नाम से मशहूर शायरा, जिनका तखल्लुस जानी और नाम बेगम जान था, नवाब कमरुद्दीन खां की बेटी और नवाब आसफुद्दौला बहादुर की पत्नी थीं। शेफ्ता ने लिखा है कि एक बार वह कई बिमारियों से परेशान थीं और हमदम नामक एक ख्वाजा-सिरा, हिजड़ा, उनका हाल जानने के लिए आया। 

जानी बहु बेगम ने अपनी हालत और हमदम की चिंता की मुनासिबत से तुरंत यह मतला, नज़्म का पहला शेर, कहा और सुनाया:

क्या पूछता है हमदम इस जिस्म नातवां की 
हर रग में नीश गम है कहिये कहां कहां की 

शेफ्ता ने जानी का यह शेर भी दिया है:

दिल जिस से लगाया वह हुआ दुश्मन जानी 
कुछ दिल का लगाना ही हमें रास नहीं है 

एक दूसरी शायरा, जीना बेगम के बारे में शेफ्ता (गुलशने बे-खार, पृष्ठ 131) इस तरह लिखते हैं कि जीना बेगम के हालात उसकी खूबसूरती की तरह परदे में रहे और शायद वही उसके कमाल का तकाजा भी था। शायरी की एक मिसाल देखिए:

यह किस के आतिशे गम ने जिगर जलाया है 
के ता फलक मेरे शोले ने सर उठाया है। 

इसी तरह, दुल्हन बेगम नाम की एक शायरा का संक्षिप्त परिचय इस तरह से दिया है (गुलशने बे-खार, पृष्ठ 161) कि उसका हाल भी उसके चेहरे की तरह नकाब में है। पाकीजगी में डूबी हुई उस शायरा के दो शेर यहां हैं:

बहा है फूट के आंखों से आबला दिल का 
तरी की राह से जाता है काफिला दिल का। 

और कहा है कि:

जहां के बाग में हम भी बहार रखते हैं 
मिसाल लाला के दिले दागदार रखते हैं। 

उपरोक्त नेक मिज़ाज शायरात की सादगी और हिजाबाना अंदाज के जिक्र के बरक्स, जीनत नाम की बिंदास शायरा का हाल शेफ्ता ने इस तरह बयान किया है (गुलशने बे-खार, पृष्ठ 190):

जीनत तखल्लुस है। बाजार की औरतों में से है। तबीयतन आशिक मिज़ाज है। इस शहर जन्नत नजीर शाहजहानाबाद दिल्ली के शायर मिर्जा इब्राहीम बेग तखल्लुस मकतूल, मृतक, उस पर ऐसे फिदा हुए कि लुट गए। शेफ्ता के अनुसार, जीनत के नाज से वह ऐसे कत्ल हुए कि सारे रस्मो-रिवाज को ताक पर रख कर बिना किसी शर्मो हया के उसके साथ लखनऊ को चल पड़े। मानो, मकतूल का कत्ल हो गया!

जीनत की कातिलाना रुमानी शायरी की एक मिसाल है:

शबे महताब में ता सुबह जीनत 
ख्याले माह रु है और हम हैं। 

शेफ्ता के मुताबिक (गुलशने बे-खार, पृष्ठ 234-35), उम्मतुल फातिमा बेगम नामक एक शायरा साहिबा ने अपना तखल्लुस मर्दानावर, साहेब, रखना पसंद किया और साहेब जी के नाम से मशहूर हुईं! दिल्ली में मोमिन खां मोमिन नाम के बड़े शायर से खास ताल्लुक और आशनाई थी। लखनऊ से थीं और वापस लौटकर बड़ा नाम कमाया। शेफ्ता की खुश-बयानी देखिए: वह नेकी के आसमान का चाँद है, पूरब से निकलने वाला सूरज जो पच्छिम से निकल आया है। इलाज के सिलसिले में उसको मोमिन खां से काम पड़ा। एक माह के अंदर दर्द और दवा के कई मौके दर पेश हुए!

मोमिन की लंबी कविता (मसनवी), क़ौले ग़मगीन, के दुखड़ों की जमीन साहेब के हुस्नो जमाल की सलाम-गाह है। वहीं आग उधर भी लगी थी। एक वक्त के बाद मामलात एक तरफा नहीं रह जाते। मोमिन खां की सोहबतों के फैज से साहेब का दिल भी शेरो शायरी की तरफ मायल हुआ और जिस्मानी हुस्न से जुड़े दर्द ने खुद को शायराना अंदाज में ढाल कर निखार लिया। इस तरह उन्होंने अपने जुल्फे परीशां को संवारते-संवारते पेचीदा अशआर की गिरहें खोलना सीख लिया। 

शेफ्ता द्वारा दी गई साहेब की एक गजल के कुछ अशआर यहां पेश किए जाते हैं:

रकीबों का जलना कहां देखता तु 
समां ये मेरे घर में आया तो देखा। 

गुनह क्या सनम के नजारे में जाहिद 
ये जलवा खुदा ने दिखाया तो देखा।

साहेब जो बनाया है तु मानिंद जुलेखा 
यूसुफ सा गुलाम एक मुझे दे डाल इलाही। 

मजहब-परस्ती में मुबतला पैतृक समाज का कोई ठेकेदार इस पाये की दिलकश शायरी पर लाठी चलाकर बेहयाई का फतवा नहीं मांग सकता था। यह अदब में साफगोई और बेबाकी की अलामत है। साहित्य-सृजन में जुड़े लोग वक़्त के मिज़ाज की अक्कासी करते हैं। वह वक़्त की पैदावार होते हैं, और इस तरह शायरात के कलाम और उनके जमानो-मकान भी एक दूसरे के पूरक होते हैं। 

सांस्कृतिक गतिविधियों में किसी कदर बढ़ावा दिए जाने वाले राजनीतिक परिपेक्ष और उसमें अपना असर और रसूख रखने का मतलब यह भी है कि कुछ शायरात को आर्टिस्टिक लाइसेंस प्राप्त था। ऐसी एक मिसाल देखिए। शेफ्ता ने लिखा है (गुलशने बे-खार, पृष्ठ 298) कि गना बेगम एक पाकीजा खानदान की खातून है और नवाब एतमादुद-दौला गाजीउद्दीन खां निजाम तखल्लुस की बीवी है। शौहर की इजाज़त से अपने कलाम पर मीर कमरुद्दीन मिन्नत से इस्लाह लिया करती थी। शायरी का स्टाइल बिंदास है:

मुकाबिल हो अगर लब के तेरे मिस्री चबा जाऊं 
तेरी आंखों से हम चश्मी करे बादाम खा जाऊं। 

तेरे मुंह की तजल्ली देखकर कल रात हसरत से 
ज़मीं पर लोटती थी चांदनी और शम्मा जलती थी। 

शेफ्ता ने (गुलशने बे-खार, पृष्ठ 375-76) "खूबसूरत तवायफों में से एक", जीनत का भी जिक्र किया है जो शायरी करती थी और नाजुक तखल्लुस रखा था। यह अशआर भी दिया है:

याद आती है इन आंखों में आमद वह नशों की 
साकी मै गुलरंग से जब जाम भरे है। 

है नाला व ज़ारी का मेरे शोर फलक तक 
पर वह बुते मगरुर कोई कान धरे है। 

जिस शायरा ने शेफ्ता (गुलशने बे-खार, पृष्ठ 386-88) का दिल लूट लिया उसका तखल्लुस नजाकत था। लेखक ने उसकी खूबसूरती और खूबसीरती दोनों का लंबा-चौड़ा बखान पेश किया है। शेफ्ता ने जिस तरह तारीफ का पुल बांधा है, उसके कुछ अंश यहां प्रस्तुत हैं: इस चाँद नुमा, सूरज के मानिंद, बेहद हसीन, जान-नवाज, राहते-दिल शायरा का नाम रमजू और तखल्लुस नजाकत है। उसका खानदान शहर नारनौल का है। सुबह की मलका की तरह आन की आन में शाहजहानाबाद में जलवा फरमा हो गई है और इस मुबारक बुनियाद वाले शहर की रौनक अफजाई का बाइस हुई है। वह मीठी माशूक है और बड़ी नमकीन दिलबर। 

शेफ्ता ने नजाकत की तारीफ उसके सिर से पांव तक जिस खुले दिल और क्रिएटिव इमेजिनेशन से लिखा है, श्रृंगार रस में डूबे हुए बड़े से बड़े रसीक कवियों से मुमकिन न था। इनको पढ़ते हुए किसी पाखंडी पाठक को शर्म आएगी, इसलिए हम यहां आगे बढ़ते हुए सिर्फ एक जुमले पर इक्तफा करते हैं: "वह गुलशने शबाब का नौ-शगुफ्ता गुलाब है और बागे-हयात का रस भरा फल है, एवं हुस्नो जमाल के चमन का अभी-अभी उभरने वाला सुरुर है।"

शेफ्ता आगे कहते हैं कि अपने मिज़ाज के तहत वह नापसंदीदा तरीकों से कराहियत महसूस करती है और अपनी पसंदीदा खसलतों की आशिक़े ज़ार है। दानाई, ज़ेहानत, शोखी, और मतानत या संजीदगी से पूरी तरह आशना और आरस्ता है। वह दर्दमंदी, हमदर्दी, वफादारी और बेरहमी के जज़बात व एहसासात से खूब अच्छी तरह वाकिफ है। 

शेफ्ता ने यह कहते हुए कि, "कभी-कभी फिक्रे सुखन करती है और दिलकश अशआर नज़्म करती है, एवं उसकी शायरी का असलूब (तर्ज़ या तरीका) अच्छा है", नजाकत के कलाम से चंद अशआर पेश किया है। इसे देखिए:

बसके रहता है यार आंखों में 
बे नजर बे करार आंखों में 

और कहा है कि: 

क्यों न मैं कुर्बान हूं जब वह कहे नाज से 
हमको जफा का है शौक अहले वफा कौन है। 

और यह कि:

क्या क्या अजाब उठाए हैं अन्दोह इश्क के 
जुज़ नाम अब तो कुछ भी नजाकत नहीं रही। 

यह औरतें आखिर कहां लुप्त हो गईं। जमाना तेजी से बदल रहा था। 1830 के दशक में जबकि शेफ्ता की यह किताब तैयार हो रही थी, औपनिवेशिक आधुनिकता राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों को छिन्न-भिन्न कर रही थी। मानो, शुरुआती आधुनिक काल की रस्मो-रिवायत का अब कोई औचित्य नहीं रह गया था। नए सत्ताधारी लोग पराजित किए गए समाज को कुचल कर नया इतिहास लिखना चाहते हैं। इस प्रक्रिया में औरतों को भी घसीटा जाता है, यह कहते हुए कि उनके साथ नाइंसाफियां होती रही हैं, जिन्हें कानूनन ठीक किया जाएगा। निःसंदेह, नई औपनिवेशिक नीतियां कुछ हद तक औरतों को स्वाधिकार और उत्थान की तरफ ले जा रही थीं। शिक्षा, नौकरी, कानून की नजर में समानता और पैतृक संपत्ति में अधिकार के अलावा विवाह एवं तलाक के क्षेत्र में सुधार ने सामाजिक परिवर्तन के नए दरवाजे खोलना शुरु किया था। 

जैसा कि पार्था चटर्जी ने बताया है, बाद के दशकों में भारतीय राष्ट्रवादी विमर्श ने औपनिवेशिक शाषकों द्वारा औरतों के नाम पर चलाए जा रहे डंडे और उन्हें इंसाफ दिलाने के नाम पर किए जा रहे कदमों को रोकने का उपाय ढूंढ लिया था। उपनिवेशवाद एक सर्वव्यापी यथार्थ था, लेकिन सरकारी तंत्रों से जुड़ी आधुनिकता से कॉम्प्रोमईज़ करते हुए उसे घरों की दहलीज पर रोका जा सकता था। इस तरह, औपनिवेशिक आधुनिकता के पेशे-नजर वक्त के साथ चलते हुए अपनी देशज परम्पराओं को बचाया जा सकता था। घर के भारतीय पारम्परिक संसार और बाहर की नयी पश्चिमी दुनिया के बीच के अंतर में तालमेल के साथ समाज को संवारने की नयी प्रक्रिया को प्रोफेसर चटर्जी ने "नैशनलिस्ट रेसोलुशन ऑफ़ दी विमेंस क्वेश्चन" की संज्ञा दी है, यानि औरतों के मसले का राष्ट्रवादी निराकरण। 

चूंकि अंग्रेजों ने अमूमन मुसलमानों को हर जगह परास्त कर सत्ता हथियाया था, उन्हें इस झटके से उभरने में समय दरकार था। यह सर्वविदित है कि ब्रिटिश सत्ता ने मुसलमानों को खासकर अपनी ज़द में रखा। मजहबी रिवायात की जंजीरों में जकड़े मुसलमान खुद भी वक्त के साथ चलने से कासिर थे। फिर भी, औरतों का मसला मुस्लिम मआशरों में भी बहस का मुद्दा बना, हालांकि यहां बदलाव की गति और प्रारुप समय से 50-60 साल पीछे चलना स्वाभाविक था। इसका मतलब यह भी हुआ कि महिलाओं को मजहब और रिवायती प्रथा का हिजाब पहना कर घरों की चहार-दीवारी तक फिर से महदूद किया जाने लगा। निश्चित रुप से, कुछ लोग सवाल उठा रहे होंगे और औरतों के भीतर की शायरा कुढ़-कुढ़कर मर रही होगी। 

हम पिछले दौर की नजाकत के इस शेर के साथ अपनी बात खत्म करते हैं कि:

कहता है आपकी भी है क्या आशिकी गलत 
गर कहिए तेरे अहद में उल्फत नहीं रही। 


सन्दर्भ-ग्रन्थ:

नवाब मुस्तफा खान शेफ्ता, गुलशने बे-खार, उर्दू तर्जुमा हमीदा खातून, नयी दिल्ली: कौमी कौंसिल बराए फरोग उर्दू जबान, 1998. 

पार्था चटर्जी, "दी नैशनलिस्ट रेसोलुशन ऑफ़ दी विमेंस क्वेश्चन," एम्पायर एंड नेशन, इसेनशियल राइटिंग्स ऑफ़ पार्था चटर्जी, सं. निवेदिता मेनन, नयी दिल्ली: परमानेंट ब्लैक, 2010. 


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