उर्दू कहानी: आखिरी आदमी

उर्दू अदब का एक शाहकार अफ़साना: आखिरी आदमी 

लेखक: इंतिज़ार हुसैन 

हिंदी अनुवाद: रज़ीउद्दीन अक़ील 


आखिरी आदमी 


अल-यासफ उस इलाके में आखिरी आदमी था। उसने यह अहद किया था कि माबूद की सौगन्ध मैं आदमी के गिरोह में पैदा हुआ हूँ और मैं आदमी ही के गिरोह में मरूंगा, और उसने आदमी के गिरोह में रहने की आखिर दम तक कोशिश की। उस इलाके से, तीन दिन पहले, बन्दर गायब हो गए थे। लोग हैरान हुए और फिर खुशी मनाई कि बन्दर जो फसलें बर्बाद और बाग खराब करते थे नाबूद हो गए। पर उस शख्स ने जो उन्हें सब्त के दिन [सनीचर: यहूदियों का पवित्र दिन] मछलियों के शिकार से मना किया करता था, कहा कि बन्दर तो तुम्हारे दरमियान मौजूद हैं, मगर यह कि तुम देखते नहीं। लोगों ने उसका बुरा माना और कहा कि तू हमसे ठट्ठा करता है और उसने कहा कि बेशक ठट्ठा तुम ने खुदा से किया कि उसने सब्त के दिन मछलियों के शिकार से मना किया और तुमने सब्त के दिन मछलियों का शिकार किया और जान लो कि वह तुमसे बड़ा ठट्ठा करने वाला है। 

उसके तीसरे दिन यूँ हुआ कि अल-याजर की लौंडी गजरुम, अल-याजर के बेडरूम में दाखिल हुई और सहमी हुई अल-याजर की जोरू के पास उल्टे पांव आई, फिर अल-याजर की जोरू बेडरूम में गई और हैरान एवं परेशान वापस आई। फिर यह खबर दूर-दूर तक फैल गयी थी और दूर-दूर से लोग अल-याजर के घर आते और उसके बेडरूम तक जाकर ठिठक जाते कि बेडरूम में अल-याजर की बजाय एक बड़ा बन्दर आराम करता था, और अल-याजर ने पिछले सब्त के दिन सबसे ज्यादा मछलियां पकड़ी थीं। 

फिर यूँ हुआ कि एक ने दूसरे को खबर दी कि तुमने सुना है अल-याजर बन्दर बन गया है, इस पर दूसरा जोर से हंसा तू ने मुझसे ठट्ठा किया और वह हंसता ही चला गया यहां तक कि उसका मुंह सुर्ख पड़ गया, और दांत निकल आए और चेहरे का हुलिया बिगड़ता चला गया और वह बन्दर बन गया। तब पहला बहुत हैरान हुआ, मुंह उसका खुला का खुला रह गया और आंखें हैरत से फैलती चली गईं और फिर वह भी बन्दर बन गया। 

और अल-याब इब्ने जबलुन को देखकर डरा और यूँ बोला कि ए, जबलुन के बेटे, तुझे क्या हुआ है कि तेरा चेहरा बिगड़ गया। अब जबलुन ने इस बात का बुरा माना और गुस्से से दांत किचकिचाने लगा, तब अल-याब और डरा एवं चिल्ला कर बोला कि ए जबलुन तेरी मां तेरे सोग में बैठे, जरूर तुझे कुछ हो गया है। इस पर इब्ने जबलुन का मुंह गुस्से से लाल हो गया और दांत भींच कर अल-याब पर झपटा। तब अल-याब खौफ से लरज उठा। इस तरह, इब्ने जबलुन का चेहरा गुस्से से और अल-याब का चेहरा खौफ से बिगड़ता चला गया। 

इब्ने जबलुन गुस्से से आप से बाहर हुआ और अल-याब खौफ से अपने आप में सुकड़ता चला गया और वह दोनों खौफ और गुस्से के पुतले बनकर एक दूसरे में गुथ गए। उनके चेहरे बिगड़ते चले गए, फिर उनके दूसरे अंग बिगड़े, फिर उनकी आवाजें बिगड़ीं कि शब्द आपस में उलझते चले गए और उनकी बोली फकत आवाजें बन गयीं, फिर वह शब्द-विहीन आवाजें वहशियाना चीख बन गईं और फिर वह बन्दर बन गए। 

अल-यासफ ने कि उन सब में अक्लमंद था और सब से आखिर तक आदमी बना रहा, तशवीश से कहा कि लोगों! जरुरु हमें कुछ हो गया है, आओ हम उस शख्स से पूछें जो हमें सब्त के दिन मछलियां पकड़ने से मना करता है। फिर अल-यासफ लोगों के हमराह उस शख्स के घर गया और वहां जमा होकर देर तक पुकारा। तब वह वहां से मायूस फिरा और बड़ी आवाज से बोला कि ए लोगों! वह शख्स जो हमें सब्त के दिन मछलियां पकड़ने से मना करता था आज हमें छोड़कर चला गया है, और अगर सोचो तो इसमें हमारे लिए खराबी है। लोगों ने यह सुना और दहल गए। एक बड़े खौफ ने उन्हें आ दबोचा।

दहशत से सूरतें उनकी चिपटी होने लगीं और उनके विशिष्ट रुप मिटते चले गए और अल-यासफ ने घूमकर देखा तो अपने पीछे बन्दरों के सिवा किसी को न पाया। 

जानना चाहिए कि वह बस्ती एक बस्ती थी। समुन्दर के किनारे ऊंचे बुर्जों और बड़े दरवाजों वाली हवेलियों की बस्ती, बाजारों में शानो-शौकत छलकती थी, पर दम के दम में बाजार वीरान होते चले गए और ऊंची ड्योढ़ियाँ सूनी हो गईं। और ऊंचे बुर्जों में आलिशान छतों पर बन्दर ही बन्दर नजर आने लगे। 

और अल-यासफ ने हरास से चारों तरफ नजर दौड़ाई और सोचा मैं अकेला आदमी हूँ और इस ख्याल से वह ऐसा डरा कि उसका खौफ जमने लगा, लेकिन उसे अल-याब याद आया कि खौफ से किस तरह उसका चेहरा बिगड़ता चला गया था। तब अल-यासफ ने अपने खौफ पर गलबा पाया और अहद किया कि माबूद की सौगंध मैं आदमी के गिरोह में पैदा हुआ हूँ और आदमी के गिरोह में मरूंगा। फिर उसने एक एहसासे-बरतरी के साथ अपनी बिगड़ी सूरत वाले साथियों की तरफ देखा और कहा: तहकीक, मैं उनमें से नहीं हूँ कि वह बन्दर हैं और मैं आदमी के गिरोह में पैदा हुआ हूँ। और इस तरह अल-यासफ ने अपने लोगों से नफरत की। 

उसने उनकी लाल भभुका सूरतों और बालों से ढके हुए जिस्मों को देखा और नफरत से चेहरा उसका बिगड़ने लगा, मगर उसे अचानक इब्ने जबलुन का ख्याल आया कि नफरत से सूरत उसका बिगड़ गया था। उसने खुद से कहा कि अल-यासफ नफरत मत करो कि नफरत से आदमी की काया बदल जाती है, और इस तरह अल-यासफ ने नफरत से किनारा किया। 

अल-यासफ ने नफरत से किनारा किया और कहा बेशक मैं उन्ही में से था और वह दिन याद किए, जब वह उनमें से था और दिल उसका मोहब्बत के जोश से उमड़ने लगा। उसे बिन्ते अल-अखजर की याद आई कि फिरऔन के रथ की दूधिया घोड़ियों में से एक घोड़ी की तरह थी, और उसके बड़े घर के दरवाजे देवदार की लकड़ियों से बने थे। इस याद के साथ अल-यासफ को बीते दिन याद आ गए कि वह उस मकान में पीछे से गया था और छपरखट में उसे टटोला जिसके लिए उसका जी चाहता था और उसने देखा:

लंबे बाल उसकी रात के बूंदों से भीगे हुए हैं और छातियां हिरण की बच्चों की माफिक तड़पती हैं और पेट उसकी गेहूं की ढेरी जैसी है और पास उसके संदल का गोल प्याला है। और अल-यासफ ने बिन्ते अल-अखजर को याद किया और हिरण के बच्चों और गेहूं की ढेरी और संदल के गोल प्याले को याद करता हुआ ख्यालों में डूबकर देवदार के दरवाजों वाले घर तक गया और खाली मकान को देखा और छपरखट पर उसे टटोला जिसके लिए उसका जी चाहता था। और पुकारा कि ए, बिन्ते अल-अखजर! तू कहां है और ए वह कि जिसके लिए उसका जी चाहता है। देख मौसम का भारी महीना गुजर गया और फूलों की क्यारियां हरी-भरी हो गईं और कमरियां ऊंची शाखों पर फड़फड़ाती हैं। तू कहां है, ए खिज्र की बेटी, ए ऊंची छत पर बिछे छपरखट पर आराम करने वाली, तुझे दश्त में दौड़ती हुई हिरणों और चट्टानों की दराड़ों में छुपे हुए कबूतरों की कसम, तू नीचे उतर और मुझसे आ मिल के तेरे लिए मेरा जी चाहता है। 

अल-यासफ बिन्ते अल-अखजर को याद करके रोया, मगर अचानक उसे अल-याजर की जोरु याद आई जो अल-याजर को बन्दर की शक्ल में देखकर रोयी थी, यहां तक कि उसकी हिड़की बंद की गई और बहते हुए आंसुओं में उसके खूबसूरत नक्श बिगड़ते चले गए और हिड़की आवाज वहशी होती चली गई....यहां तक की उसका पूरा हुलिया बदल गया। तब अल-यासफ ने ख्याल किया कि बिन्ते अल-अखजर जिनमें से थी उनमें मिल गई, और बेशक जो जिनमें से है, वह उनके साथ उठाया जायगा। और अल-यासफ ने अपने तईं कहा कि ए, अल-यासफ, उनसे मोहब्बत मत कर कहीं तू उनमें सा न हो जाए। इस तरह, अल-यासफ ने मोहब्बत से किनारा किया और इंसानों को गैर-इंसान जानकर उनसे बे-ताल्लुक हो गया। और अल-यासफ ने हिरण के बच्चों और गेहूं की ढेरी और संदल के गोल प्याले को खामोश कर दिया। 

अल-यासफ ने मोहब्बत से किनारा किया और अपने गिर्द लाल भभुका सूरतों और खड़ी दुम को देखकर हंसा। और अल-यासफ को अल-याजर की जोरु याद आई कि वह अपने इलाके की हसीन औरतों में से थी। वह ताड़ के दरख्त की मिसाल थी और छातियां उसकी अंगूर के खोशों के मानिंद थीं और अल-याजर ने उससे कहा था कि जान लेकर मैं अंगूर के खोशों को तोड़ूंगा और अंगूर के खोशों वाली तड़प कर साहिल की तरफ निकल गई। अल-याजर उसके पीछे-पीछे गया और फल तोड़ा और ताड़ के दरख्त को अपने घर ले आया। 

और अब वह एक ऊंचे कंगूरे पर अल-याजर की जुएं बिन-बिन कर खाती थी। अल-याजर झिर-झिरी लेकर खड़ा हो जाता, और वह दुम खड़ी करके अपने लिजलिजे पंजों पर उठ बैठती। इसे देखकर अल-यासफ हंसता और उसके हंसने की आवाज इतनी ऊंची होती कि उसे सारी बस्ती गूंजती मालूम होती। और वह खुद इतनी जोर से हंसने पर हैरान हुआ, मगर अचानक उसे उस शख्स का ख्याल आया जो हंसते-हंसते बन्दर बन गया था। और अल-यासफ ने यह ठाना कि: ए, अल-यासफ, तू उनपर मत हंस, कहीं तू उन्हीं की तरह न बन जाए। इस तरह अल-यासफ ने हंसी से किनारा किया।

अल-यासफ ने हंसी से किनारा किया। अल-यासफ मोहब्बत और नफरत से, गुस्सा और हमदर्दी से, रोने और हंसने से, हर कैफियत से गुजर गया, और अपने लोगों को गैर जानकर उनसे बे-ताल्लुक हो गया।  उनका दरख्तों पर उचकना, दांत पीस-पीसकर गुलकारियां करना, कच्चे-कच्चे फलों पर लड़ना और एक दूसरे को लहू-लुहान कर देना। यह सब कुछ उसे कभी उनके हाल पर रुलाता था, कभी हंसाता था, कभी गुस्सा दिलाता कि वह उन पर दांत पीसने लगा और हिकारत से देखता और यूं हुआ कि उन्हें लड़ते देखकर उसने गुस्सा किया और बड़ी आवाज से झिड़का। फिर खुद अपनी आवाज पर हैरान हुआ। किसी-किसी बन्दर ने उसे बे-ताल्लुकी से देखा और फिर लड़ाई में जुट गया। अब अल-यासफ के नजदीक शब्दों की कदर जाती रही कि वह उसके और उनके बीच, जो अब बन्दर बन चुके थे, रिश्ते का माध्यम नहीं रह गए थे। और इसका उसने अफसोस किया। मुझ पर बेवजह उसके लफ्ज मेरे हाथों में खाली बर्तन की मिसाल बनकर रह गया, और सोचो तो आज बड़े अफसोस का दिन है। आज लफ्ज मर गया और अल-यासफ ने लफ्ज की मौत का नौहा किया और खामोश हो गया। 

अल-यासफ खामोश हो गया और मोहब्बत और नफरत से, गुस्से और हमदर्दी से, हंसने और रोने से दर गुजरा। उसने औरों से किनारा किया और अपनी जात के अंदर पनाह ली। वह अपनी जात के अंदर पनाहगीर टापू के जैसा हो गया। सबसे बे-ताल्लुक, गहरे पानी के दरमियान खुश्की का नन्हा सा निशान, और टापू ने कहा मैं गहरे पानी के दरमियान जमीन का निशान बुलंद रखूंगा। 

अल-यासफ अपने तईं आदमियत की सीमा को पहचानता था, गहरे पानी के खिलाफ अपना बचाओ करने लगा। उसने अपने गिर्द पुश्ता बना लिया कि मोहब्बत और नफरत, गुस्से और हमदर्दी, गम और खुशी उस पर यलगार न करें। जज़्बे की कोई कमजोर कड़ी टूटकर उसे बहा न दे, इस तरह वह अपने जज़्बात से खौफ करने लगा। फिर जब वह पुश्ता तैयार कर चुका तो उसे यूं लगा कि उसके सीने के अंदर पथरी पड़ गई है। उसने फिक्रमन्द  होकर कहा कि ए माबूद मैं अंदर से बदल रहा हूं। फिर उसने अपने बाहर पर नजर की और उसे गुमान होने लगा कि वह पथरी फैल कर बाहर आ रही है। उसके अंग सूखे, उसकी त्वचा बदरंग और उसका लहू बे-रस होता जा रहा है। फिर उसने अपने आप पर और गौर किया और उसका डर बढ़ता गया। उसे लगा कि उसका बदन बालों से ढकता जा रहा है और बाल बदरंग और सख्त होते जा रहे हैं। तब उसे अपने बदन से खौफ आया और उसने अपनी आंखें बंद कर लीं। खौफ से वह अपने अंदर सिमटने लगा। उसे यूं मालूम हुआ कि उसके हाथ, पैर और सिर सिमटकर छोटे होते जा रहे हैं। तब उसे और खौफ हुआ और उसके अंग डर से और ज्यादा सिकुड़ने लगे और उसने सोचा क्या मैं बिल्कुल विलुप्त हो जाऊंगा। 

और अल-यासफ ने अल-याब को याद किया कि डर से अपने अंदर सिमटकर वह बन्दर बन गया था। तब उसने कहा कि मैं अपने अंदर के डर पर उसी तरह गलबा पाऊंगा, जिस तरह मैं ने बाहर के डर पर गलबा पाया था। और अल-यासफ ने अंदर के खौफ पर गलबा पा लिया और उसके सिमटते हुए अंग खुलने और फैलने लगे। 

फिर उसे महसूस हुआ कि उसके अंग ढीले पड़ने लगे हैं और उसकी उंगलियां लंबी और बाल बड़े और खड़े होने लगे और उसकी हथेलियां और तलवे चिपटे और लिजलिजे हो गए और उसके जोड़ खुलने लगे। अल-यासफ को गुमान हुआ कि उसके सारे अंग बिखर जाएंगे, तब उसने अपने दांतों को भींचा और मुट्ठियां कसकर बांधीं और अपने आपको इकट्ठा करने लगा। 

अल-यासफ ने अपने अंगों के बिगड़े हुए आकार की ताब न लाकर आंखें बंद कर लीं और जब उसने आंखें बंद कर लीं तो उसे लगा कि उसके अंगों के रुप बदल रहे हैं। उसने डरते-डरते अपने आप से पूछा कि मैं-मैं नहीं रहा? इस ख्याल से उसका दिल ढपने लगा। उसने बहुत डरते-डरते एक आंख खोली और चुपके से अपने शरीर पर नजर डाली। उसे ढारस हुई कि उसके अंग तो जैसे थे वैसे ही हैं। उसने दिलेरी से आंखें खोलीं और इतमिनान से अपने बदन को देखा और कहा कि बेशक मैं अपने इंसानी गिरोह से हूं, मगर इसके बाद आप ही आप उसे फिर शक हुआ कि जैसे उसके अंग बिगड़ते जा रहे हैं और उसने फिर आंखें बंद कर लीं। 

जब अल-यासफ ने आंखें बंद कर लीं तो उसका ध्यान अंदर की तरफ गया और उसने जाना कि वह किसी अंधेरे कुंएं में धंसता जा रहा है और कुंएं में धंसते हुए दर्द के साथ कहा कि ए मेरे माबूद मेरे बाहर भी दोजख है। 

अंधेरे कुंएं में धसते हुए अपने लोगों की पुरानी सूरतों ने उसका पीछा किया और गुजरी रातें उसे घेरने लगा। अल-यासफ सब्त के दिन उनके द्वारा मछलियों के शिकार करने को याद करने लगा, कि मछलियों से भरा समुंदर मछलियों से खाली होने लगा, और उनकी हवस बढ़ती गई और उन्होंने सब्त के दिन भी मछलियों का शिकार कर दिया। तब उस शख्स ने जो उन्हें सब्त के दिन मछलियों के शिकार से मना करता था कहा कि रब की सौगंध जिसने समुंदर को गहरे पानियों वाला बनाया, गहरे पानियों की मछलियों का आश्रय ठहराया, समुंदर तुम्हारे हवस से पनाह मांगता है। और सब्त के दिन मछलियों पर जुल्म करने से बाज आओ कि कहीं तुम खुद अपनी जानों पर जुल्म करने वाले करार दिए जाओ। 

अल-यासफ ने कहा कि माबूद की सौगंध मैं सब्त के दिन मछलियों का शिकार नहीं करूंगा, और वह अक्ल का पुतला था। उसने समुंदर से फासले पर एक गड्ढा खोदा और नाली खोद कर उसे समुंदर से मिला दिया। सब्त के दिन मछलियां पानी की सतह पर आईं तो तैरती हुई नाली की राह गड्ढे में आ पहुंचीं। और सब्त के दूसरे दिन अल-यासफ ने उस गड्ढे से बहुत सी मछलियां पकड़ीं। 

वह शख्स जो सब्त के दिन मछलियां पकड़ने से मना करता था यह देखकर बोला कि तहकीक जिसने ईश्वर से धोखा-धड़ी किया, ईश्वर उसको धोखा देगा, बेशक वह बड़ा धोखेबाज है। अल-यासफ यह याद करके पछताया और उसे शक हुआ कि क्या वह धोखे का शिकार हो गया है। उस घड़ी उसे पूरी बस्ती मक्कारी से घिरी हुई नजर आई। तब वह ईश्वर के दरबार में गिड़गिड़ाया कि पैदा करने वाले ने मुझे ऐसा पैदा किया जैसे पैदा करने का हक है, तूने मुझे  बेहतरीन रुप में ढाला और अपनी मिसाल पर बनाया। पस, ए पैदा करने वाले, तू अब मुझसे मक्कारी करेगा और मुझे जलील बंदर के असलूब पर ढालेगा, यह कहकर अल-यासफ अपने हाल पर रोया। उसके बनाए पुश्त में दरार पड़ गई थी और समुंदर का पानी टापू को डुबोने लगा था। 

अल-यासफ अपने हाल पर रोया और बंदरों से भरी बस्ती से मुंह मोड़कर जंगल की तरफ निकल गया, कि अब बस्ती उसे जंगल से ज्यादा वहशत भरी नजर आती थी। दीवारों और छतों वाला घर उसके लिए लफ्ज की तरह मानी खो बैठा था। रात उसने दरख्त की टहनियों पर छुप कर बसर की। 

जब सुबह को वह जागा तो उसका सारा बदन दुख रहा था और रीढ़ की हड्डी दर्द करती थी। उसने अपने शरीर के बिगड़े हुए अंगों पर नजर की कि उस वक्त कुछ ज्यादा बिगड़े-बिगड़े मालूम पड़ते थे। उसने डरते-डरते सोचा क्या मैं मैं ही हूं? उस वक्त उसे ख्याल आया कि काश बस्ती में कोई इंसान होता कि उसे बता सकता कि वह किस गिरोह में है और यह ख्याल आने पर खुद से सवाल किया कि क्या आदमी बने रहने के लिए यह लाजिम है कि वह आदमियों के दरमियान हो। फिर उसने खुद ही जवाब दिया कि बेशक आदम अपने तईं अधूरा है कि आदमी-आदमी के साथ बंधा हुआ है, और जो जिनमें से है उनके साथ उठाया जाएगा। जब उसने यह सोचा तो रुह उसकी गम से भर गई और वह पुकारा कि ए, बिन्ते अल-अखजर, तू कहां है? कि तुझ बिन मैं अधूरा हूं। 

उस वक्त अल-यासफ को हिरण के तपड़ते हुए बच्चों और गेहूं की ढेरी और संदल के गोल प्याले की बेतरह याद आई। टापू पर समुंदर का पानी उमड़ा चला आ रहा था। अल-यासफ ने दर्द से सदा की: ए, बिन्ते अल-अखजर, ए, जिसके लिए मेरा जी चाहता है, तुझे मैं ऊंची छत पर बिछे हुए छपरखट पर और बड़े दरख्तों की घनी शाखों में और बुलंद बुर्जियों में ढूंढूंगा। तुझे सरपट दौड़ी दूधिया घोड़ियों की कसम है। कसम है कबूतरों की जब वह बुलंदियों पर परवाज करें। कसम है तुझे रात की जब वह भीग जाए, कसम है तुझे रात के अंधेरे की जब वह बदन में उतरने लगे, कसम है तुझे अंधेरे और नींद की, और पलकों की जब वह नींद से बोझिल हो जाएं। तू मुझसे आ मिल कि तेरे लिए मेरा जी चाहता है।

और जब उसने यह सदा कि तो बहुत से लफ्ज आपस में गडमड हो गए। जैसे जंजीर उलझ गई हो। जैसे लफ्ज मिट रहे हों। जैसे उसकी आवाज बदलती जा रही हो। तब अल-यासफ अपनी बदलती हुई आवाज पर गौर करने लगा और इब्ने जबलुन और अल-याब को याद किया कि क्यों उनकी आवाजें बदलती चली गईं थीं। अल-यासफ अपनी बदलती हुई आवाज का तसव्वुर करके डरा और सोचा कि, ए माबूद, क्या मैं बदल गया हूं? उस वक्त उसे यह निराला ख्याल सूझा कि काश कोई ऐसी चीज होती कि उसके जरिये वह अपना चेहरा देख सकता, मगर यह ख्याल उसे बहुत अनहोना नजर आया और उसने दर्द से कहा कि, ए माबूद, मैं कैसे जानूं कि मैं नहीं बदला हूं। 

अल-यासफ ने पहले बस्ती को जाने का ख्याल किया, मगर खुद ही इस ख्याल से भयभीत हो गया और उसे बस्ती के खाली और ऊंचे घरों से डर लगने लगा और जंगल के ऊंचे दरख्त रह-रहकर उसे अपनी तरफ खींचते थे। अल-यासफ बस्ती वापस जाने के ख्याल के डर से चलते-चलते जंगल में दूर तक निकल गया। बहुत दूर जाकर उसे एक झील नजर आई कि पानी उसका ठहरा हुआ था। झील के किनारे बैठकर उसने पानी पिया। जी ठंडा किया। 

इस बीच, वह मोती जैसे पानी को तके-तके चौंका। यह मैं हूं? उसे पानी में अपनी सूरत दिखाई दे रही थी। उसकी चीख निकल गई और अल-यासफ को अल-यासफ की चीख ने आ लिया और वह भाग खड़ा हुआ। 

अल-यासफ को अल-यासफ की चीख ने आ लिया था और वह बेतहाशा भागा चला जा रहा था, जैसे वह झील उसका पीछा कर रही थी। भागते-भागते तलवे उसके दुखने लगे और चिपटे होने लगे। कमर उसकी दर्द करती रही, मगर वह भागता रहा और कमर का दर्द बढ़ता गया। और उसे यूं मालूम हुआ कि उसकी रीढ़ की हड्डी दोहरी हुआ चाहती है और वह दफअतन झुका और बे-साख्ता अपनी हथेलियां जमीन पर टिका दीं, और बिन्ते अल-अखजर को सूंघता हुआ चारों हाथ पैरों के बल तीर के मवाफिक चलता चला गया। 


स्रोत: "आख़िरी आदमी" (अफ़सानवी मजमुआ), अज़ इन्तिज़ार हुसैन, देहली: एजुकेशनल पब्लिशिंग हॉउस, 1993. 

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