उर्दू अफ़साना, कहानी: बदनसीब बुत-तराश (1937)

लेखक: अहमद नदीम क़ासमी 

हिंदी अनुवाद: रज़ीउद्दीन अक़ील 


बदनसीब बुत-तराश


जी हाँ....बुत-तराश....अपने बेमेल और बिखरे हुए ख्यालात और भटकी हुई मगर हसीन कल्पना को नीले-नीले पत्थरों में डाल कर एक दिल-पज़ीर खिलौना बनाना। 

एक बुत जो बुत-तराश की देवी के दर्शन और उपासना का स्थल बन कर रह जाए - बुत-परस्ती? "आप जो कुछ कहें आप मुखतार हैं, मगर हम फकीरों को इन उलझनों से क्या काम। निजी तौर पर मेरा तो उस एक ईश्वर पर ईमान है जिसने मुझे पत्थर जैसी सख्त और बेढब चीज में हुस्न पैदा करने की महारत बख्शी।"

बूढ़ा फकीर खाना खाता जाता था और मुस्कुरा-मुस्कुरा कर एवं हाथ को हवा में हिला-हिला कर इकठ्ठा हुए लोगों को ताकीद करता जाता था। उसकी दरवेशाना दाढ़ी, रौशन चेहरा, हसीन मगर धुंधली आँखों पर झुकी हुई भुवें....उसके बोलचाल का अंदाज....वह एक कामिल बुजुर्ग मालूम हो रहा था। उसकी नाक, उसकी आँखें और उसके गालों की उभरी हुई हड्डियाँ साफ बता रही थीं कि वह किसी जमाने में कुदरत की बनाई हुई एक ऐसी अनमोल चीज रहा है जो वक्त के बेरहम तमांचों की चोट को झेल चुका है। 

"कितने बुत तराशे हैं तुमने?" एक नौजवान ने पूछा जो उस फकीर की बातों को बड़े ध्यान और हैरत से सुन रहा था। 

"एक।"

"बस एक?"

"और वह बूत-तराशी की कला के उत्कृष्ट-शाहकारों में शामिल है।"

"यह गरूर।"

"हकीकत है।"

"तो फिर लाओ जरा हम भी देखें।"

"नहीं मेरे नौजवान दोस्त।"

फकीर ने अपने सीने को एक अजीब सी हरकत दी और बुत को जो रेशमी चीथड़ों में लिपटा हुआ सामने रखा था उठाकर गोद में छुपा लिया। 

"मेरी यही कायनात है। मेरी रूह यही है, मैं क्यों अपनी रूह को बेनकाब कर दूँ? बाईस साल की उम्र थी जब मैंने इस पत्थर को हिमालय की एक चोटी से उखेड़ा था और आज मेरी उम्र पचास बरस की है। मैंने इसे मुकम्मल कर लिया है।"

"इतने अरसे में?"

"मोहब्बत वक्त की गुलाम नहीं।"

फकीर को अचानक इस जुमले की अहमियत का ख्याल हुआ जो लोगों के दिलों में एक खटकता हुआ चुभन बनकर उनकी आँखों में चमक रहा था। मोहब्बत, किस कदर चुभता हुआ लफ्ज है। फकीर ने बुत को उठाया। लाठी बगल में दबाई और सलाम अलैकुम कह यह जा वह जा दरख्तों के झुंड में गायब हो गया। 

देहाती लड़के हरे-भरे खेतों में बैल हाँकते जा रहे थे। चिड़ियाँ दरख्तों पर फुदकती फिर रही थीं। सूरज की सुनहरी मगर तेज किरणें गंजान पत्तों से छन-छन कर बूढ़े फकीर की चमकती हुई पेशानी पर नाच रही थीं। वह एक दरख्त का सहारा लिए जमीन पर बैठा था और अपने कपड़े को जो रंगारंग पत्थरों का ढेर था गौर से देख रहा था। उसकी आँखों में चमक थी और जिस्म में गैर मामूली धड़कन। उसने बुत को उठाया और बड़ी सावधानी से उसका चीथड़ा उतारना शुरू किया था। वह एक बार फिर अपनी खूबसूरत रचना को निहारना चाहता था। 

अचानक सामने से उसे वही नौजवान आता हुआ नजर आया। 

"बुत-तराश फकीर! अपनी बेजा मुदाखिलत के जुर्म की माफी के बाद यह अर्ज करने की जुर्रत करता हूँ....क्या मैं इस काबिल हूँ कि इस मूर्ति की हकीकत से रूबरू हो सकूँ?"

"हकीकत?" फकीर ने मूर्ति को अपने कुर्ते में छुपाते हुए कहा। 

"जी हाँ! यानि इस किस्म की बुत बनाने में कौन सी उम्मीद, कौन सी उमंग काम कर रही थी?"

"मोहब्बत....इश्क....तुम नौजवान हो। इस शब्द या इन शब्दों में, क्यूंकि मोहब्बत और इश्क में भी अंतर है, क्या तुम्हें कोई कशिश महसूस होती है....यह कभी खत्म नहीं होने वाली मदहोशी की हालत है। जिसमें न धोखे का गुजर है न पाखंड का....लेकिन तुम कौन हो?"

"एक आवारा, अपनी गरीब माँ के लिए मजदूरी करता फिरता हूँ। क्या आपने किसी से मोहब्बत की थी?"

"सुनो नौजवान दोस्त!" फकीर ने अपना गला साफ किया और नौजवान की आँखों में आँखें डाल कर बोला। 

"मैं एक चरवाहा हूँ। गड़ेरिया। अपने पहाड़ी गांव के पथरीले गडढों और मुश्किल चोटियों में बकरियां चराया करता था। मेरा गांव यहाँ से चार मील की दूरी पर है...."

"क्या नाम है गांव का?"

"यह नहीं बताऊंगा। राज के फाश होने का डर अब भी मेरे दिल में जवानी के उन खिलते हुए दिन की तरह बाकी है। प्रकृति की अजीबो-गरीब चीजों को देखने में डूब जाना मेरे स्वाभाव का हिस्सा था। अक्सर मैं किसी पत्थर पर नजर जमा कर बैठ जाता। घंटों उसी तरह देखा करता। उसमें मुझे तरह-तरह की विचित्र शक्लें हरकत करती हुई नजर आती थीं। हसीन और आसमानी! लोग कहते कि तुम्हारी आँखों में कोई अजीब सी कशिश है जो हर एक को अपनी तरफ खींचती है। गांव की जवान लड़कियां भी मुझे हैरत से तकती थीं। ठिठक कर खड़ी हो जातीं और दो-एक कदम मेरी तरफ अनजाने में चलकर अचानक मुड़ जातीं।"

"एक दिन मैं एक चट्टान पर बैठा हुआ एक सूखे हुए पत्ते को गौर से देख रहा था कि मुझे उसमें एक अजीब भयानक सी शक्ल नजर आई। लंबी झुकी हुई नाक, छोटी सी ठुड्डी, होठों से बाहर निकले हुए दाँत और शलजम की तरह गंजा और छोटा सा सिर, मैं कांप उठा....अचानक हवा का एक झोंका आया और पत्ता उड़कर मेरी गोद में आ पड़ा। मेरी आँखों में तो पत्ता सिर से पैर तक हैबत और दहशत का पैकर बनकर रह गया। मैं समझा कि वही खौफनाक राक्षस मुझ पर झपट पड़ा है। मैं चीख कर पीछे हटा। सिर पत्थर से टकराया और बेहोश हो गया। होश आया तो कानों में यह आवाज आई...."

"नवाज अब कैसे हो?"

"क्या आपका नाम नवाज है?" नौजवान ने हैरान होकर पूछा। 

फकीर को इस राज के टूटने पर अफसोस हुआ, यह उसकी आँखें बता रही थीं। "जी हाँ", उसने आहिस्ते से कहा। 

"आप करमगंज के तो नहीं?"

"नहीं", फकीर ने जिंदगी में पहली बार झूट बोला। "बात तो सुनो, उसका नाम....खैर।"

संग-तराश हैरान था कि उस नौजवान को उसने क्यों दास्तान सुनानी शुरू की और अब कहीं अपना राज ही जाहिर न कर बैठे। नौजवान उसे जानता था?....यही राज था जिसने उसे सख्त परेशान कर दिया, मगर हिम्मत करके बोला:

"तो वह मेरे ही गांव की लड़की थी। मैं हर दिन उसे देखा करता था। लेकिन उस दिन उसे देखते ही दिल तड़प उठा। यूँ महसूस होता था जैसे किसी ने दिल को मुट्ठी में दबाकर पूरा खून निचोड़ लिया है। आँखों में हर चीज खटकने लगी। मैंने पूछा: 'तुम यहाँ कैसे आईं?' बोली: 'तुम्हारी चीख सुनकर।' मैं मुस्कुराया और गिरता पड़ता घर पहुँचा, बाप से एक अरसे तक फरियाद करता रहा और आखिर हम दोनों की शादी हो गई। मुझे उस लड़की से इश्क था। ढोंग या दिखावे से पाक, जिसकी बुनियाद सच पर हो....हिदायत पर....मैं खुश था, वह भी खुश थी। उसे भी मुझसे इश्क था। एक दिन उसने मुझसे कहा:

'नवाज! मेरे लिए अपने हाथों से कोई तोहफा तैयार करो जो तुम्हारी मोहब्बत की कभी नहीं मिटने वाली यादगार हो।'

मैं और क्या चाहता था, खुशी से बेताब होकर पूछा:

'और अगर तोहफा तैयार करने में बहुत वक्त गुजर जाए?'

'मामूली बात है?'

नौजवान! शायद उसने मजाक ही किया था लेकिन मेरे दिल में यह ख्याल एक फर्ज बनकर समा गया।"

"शायद उस वक्त की तासीर थी या कोई और बात....एक तोहफा बनाना मेरी जिंदगी का अव्वल और सबसे मुकद्दस या पवित्र मकसद बन कर रह गया। रात को मैं घर से निकला। दौलत की तलाश में....क्यूंकि दौलत ही इस दुनिया में सब कुछ कर सकती है। मुझे क्या मालूम था कि इश्क दौलत से आजाद है। इश्क की बुनियाद हवस पर नहीं। बस मेरे दोस्त मेरी वही पुरानी आदत काम आई। एक दिन जब मैं हिमालय की एक ऊंची चोटी के करीब के एक गांव में था, बाहर निकला और चोटी पर चढ़ गया। वहां अपनी भविष्य का रंगीन सपना देख रहा था कि अचानक मुझे एक नीले पत्थर में अपनी बीवी की शक्ल नजर आई....एक नुकीला पत्थर उठाया और उस पत्थर को तराशना शुरू किया।"

"सुबह को वहाँ जाता....बिला नागा....और शाम को आकर रात गांव में गुजारता। ताज्जुब की बात यह है कि बीमारी के दिनों में मैं मूर्ति में ऐसी ऐसी खूबियां भरता जो बड़े मझे हुए मूर्तिकारों को सपने में भी नजर न आएं। लेकिन इसमें वक्त बहुत निकल गया मुझे तो इसका....सच कहता हूँ एहसास ही न हुआ। एक गांव वाले के मुताबिक, मुझे घर से निकले सत्ताईस साल हुए हैं। मूर्ति हर हालत में तैयार है। मुझे अपने बीवी और एक नन्हा बच्चा अब तक अच्छी तरह याद हैं....यही मेरा तोहफा है। मैं कितने गर्व....गरूर से यह तोहफा उसके कदमों पर डालूंगा। मोहब्बत भी कितनी मजेदार मदहोशी है। मेरे दोस्त तुम भी जवानी की बहारें देख चुके हो और देख रहे हो। क्यों तुम्हारा क्या ख्याल है?"

"मैंने भी मोहब्बत की है मगर आप जैसी कुर्बानी कहाँ से लाऊँ?"

"खैर....अब मुझे इजाजत दो। सूरज डूबने से पहले मुझे यह नादिर चीज उसकी गोद में जा डालनी है। वही वक्त रुमानी और रंगीन होता है....और वही वक्त था जब उसने मुझसे एक तोहफे की फरमाईश की थी।"

"मगर यह मूर्ति किसकी है?"

"बता जो दिया था कि मुझे इसमें उसी की सूरत नजर आई थी।"

"खुदा जाने इतने अरसे में आपने इसमें क्या-क्या सिफतें भर दी होंगी।"

"कुछ न पूछो। मैंने अपने दिमाग, अपने दिल और अपनी रूह का अर्क निचोड़ कर रख दिया है। वह कितनी खुश होगी....मैंने यह दास्तान तुम्हें इस लिए सुना दी है कि तुम्हारी आँखें भी वही चमक लिए हुए हैं जो कभी जवानी के दिनों में मेरी आँखों का सरमाया बनी रही है....और शायद अब भी है।"

"जरूर है। यही कशिश तो मुझे यहाँ तक खींच लाई है....मुझे मालूम नहीं मैं क्यों आया। मगर आ ही गया।"

फकीर हँसा, अपनी गोद में रखी छोटी सी मूर्ति को संभाला और सलाम करता हुआ तेजी से कदम बढ़ाने लगा। नौजवान वहीं खड़ा उसे देखता रहा। अचानक उसने देखा कि दो कुत्ते फकीर को घेरे हुए हैं। वह लाठी से उन्हें दूर करने की लाख कोशिश कर रहा है मगर बेसूद। नौजवान दौड़ा कि उसे उनसे निजात दिलाए। उधर फकीर ने यह सोच कर कि जल्दी से सामने एक मकान में दाखिल हो जाए, अपने ढीले कपड़े संभाली और तेज कदम उठाने लगा। अचानक उसे एक पत्थर से ठोकर लगी। मूर्ति उसके हाथ से छूटकर बहुत दूर जा गिरी। नौजवान ने कुत्तों को रोक लिया....फकीर वहशियों की तरह उठा और दौड़कर मूर्ति को उठाया और दीवानों की तरह उस पर लिपटे हुए चीथड़ों को दांतों और हाथों से फाड़ना शुरू किया....उसके मुंह से एक खौफनाक चीख निकली और....कांप कर पीछे गिर गया। 

नौजवान दौड़कर फकीर के पास आया, वह सर्द हो चुका था। मूर्ति को देखा वह गर्दन से टूट चुकी थी। टूटे हुए सिर को उठाया और देखते ही चीख उठा...."यह तो मेरी माँ का चेहरा है।"

स्रोत: उर्दू के 25 अफ़साना-निगार और उनका पहला अफ़साना, संपादक मोहम्मद परवेज़, नई दिल्ली: एजुकेशनल पब्लिशिंग हाऊस, 2019.  


Comments

Popular Posts