उर्दू अफ़साना, कहानी: बागबान (1931)
लेखक: अज़ीज़ अहमद
हिंदी अनुवाद: रज़ीउद्दीन अक़ील
बागबान
नदी के किनारे एक छोटा सा बाग था।
बाग की सतह जरा नीची थी और कभी-कभी बरसात में नदी का पानी बाग के निचले हिस्से में पहुँच जाता था। पास ही से सड़क गुजरती थी जहाँ से बाग का दृश्य देखने योग्य था। राहगीर आते-जाते जरुर नजर भर कर फूलों की कियारियों को देख लेते और बच्चे नदी के पुल पर बैठ कर फूलों पर ललचाई हुई नजरें डालते।
नदी आहिस्ता-आहिस्ता बहती और दरख्तों का साया उस पर लरजता हुआ मालूम होता। हवा चल कर टहनियों को हिलाती और फूल मानों नृत्य करने लगते। इंसान का थका हुआ दिमाग दिन भर के कामकाज के बाद प्रकृति के इन दिलकश नजारों में किस कदर लुत्फ पाता है।
इस बाग का मालिक जब दिन भर की मेहनत के बाद बाग में आता है तो उसकी खुशी की कोई सीमा नहीं होती।
लेकिन एक हस्ती ऐसी भी थी, जिसको इस बाग से बेइन्तहा मोहब्बत थी। वह इस बाग का माली था....बाग का माली जिसने अपना खून-पसीना एक करके इन पौधों को पाला-पोसा था। गर्मियों में इनको पानी दिया था, दिन-दिन भर इनकी कटनी-छटनी की थी। और इनकी जिंदगी और तरक्की का ख्याल उसके जीवन का मकसद बन गया था।
वह अकेला था। उसका कोई रिश्तेदार न था....शायद कोई दूर का संबंधी हो। मगर ऐसा तो कोई न था जिसका भरन-पोषण उसके जिम्मे हो। इसलिए भी बाग उसके लिए दुनिया था। उसकी सारी मोहब्बत इन पौधों पर निछावर थी। वह इनको परवान चढ़ते देखकर खुश होता, जैसे कोई अपने बच्चे को परवान चढ़ते देखकर खुश हो। पगार उसके बदन ढकने के लिए काफी थी। और उसे ले-देकर अगर कोई फिक्र थी तो केवल बाग की।
वह बाग की खिदमत इसलिए नहीं करता था कि यह उसका फर्ज था। शायद उसने अपने फर्ज को कभी महसूस नहीं किया। वह पौधों को अपने बच्चे समझता, और उनसे मोहब्बत करता। जैसे कोई बाप अपने बच्चे से मोहब्बत करे।
जब हवा फूलों की भीनी-भीनी खुशबु को उड़ाकर परेशान करती तो मस्त हो जाता। उसके दिल में मोहब्बत का पाकीजा-तरीन जज़्बा था। और यह इसी मोहब्बत का असर था कि वह इन फूलों की खुशबु में एक खास किस्म की राहत और मजा पाता। वह अक्सर मोहब्बत भरी नजरों से नदी को भी तका करता। इसकी वजह यह थी कि नदी उसके बाग के पास से बहती थी, और उसके दरख्तों को पानी देती थी।
और इस तरह उसकी जिंदगी खुशी, मस्ती और मजे से लबरेज थी। यह सब मोहब्बत का असर था और मोहब्बत जो हर दिल में कमो-बेश मौजूद रहती है, उसके दिल में भी थी। और उसे दुनिया और उसके पचड़ों से आजाद कर दिया था।
उसका मालिक जब बाग में आता, और बाग की तरो-ताजगी को देखता तो ठंडी सांस भर कर कहता: "यह सब माली की मोहब्बत का असर है। हर-हर फूल से माली की मोहब्बत की खुशबु आ रही है।"
शायद वह अपनी मोहब्बत को याद करने लगता, जो उसकी नौजवानी के जमाने की बेहतरीन यादगार थी।
(2)
दिन गुजरते गए। माली बूढ़ा होता गया और पेड़ तनावर होते गए।
उसके मालिक ने बागीचा दूसरे के हाथ बेच डाला। बागबान अब बहुत बूढ़ा हो गया था, पेड़ों को अब उसकी सेवा की जरूरत नहीं रह गई थी। बूढ़े माली के हाथ-पैर अब उनकी खिदमत कर भी न सकते थे। हालांकि उसकी दिली मोहब्बत बढ़ती जा रही थी। उसकी हालत उन परिंदों की सी थी जो पेड़ों की टहनियों पर बैठकर और फूलों से मुखातिब हो कर गीत-संगीत में मस्त रहते। सरूर में डूबा हुआ बूढ़ा माली कोई देहाती राग गाने लगता।
एक दिन नए मालिक ने बूढ़े माली को बुला कर कहा: "यह लो अपनी तनख्वाह। अब तुम बूढ़े हो गए, बाग तुम संभाल नहीं सकते, जाओ और घर बैठकर अल्लाह-अल्लाह करो। अब तुम काम नहीं कर सकते और यह खुदा को याद करने का जमाना है। और यह लो इनाम।"
बूढ़े माली ने हाथ जोड़कर कहा: "हुजूर मेरी एक तमन्ना पूरी कर देंगे?"
"क्या?"
"मरने के बाद मेरी कबर पर इस बाग का एक फूल डाल दीजिएगा।"
यह कह कर बूढ़े बागबान ने एक ठंडी आह भरी, और लाठी टेकता हुआ बाहर निकल गया।
स्रोत: उर्दू के 25 अफ़साना-निगार और उनका पहला अफ़साना, संपादक मोहम्मद परवेज़, नई दिल्ली: एजुकेशनल पब्लिशिंग हाऊस, 2019.
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