हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया की रूहानी जिंदगी का एक दिन

रज़ीउद्दीन अक़ील 


आज राजनीतिक तांडव अपने शबाब पर है। देश और समाज को सांप्रदायिक दंगों की आग में झोंककर सत्ता की रोटी सेंकने का काम जारी है। सत्ता को हथियाने तक तो झगड़े और फसाद को समझा जा सकता है, लेकिन सरकार में बैठकर देश को जलता हुआ देखना सरकारी तंत्रों और न्याय-व्यवस्था के मजाक उड़ाने का पर्यायवाची है। ऐसे हर मौके पर जब राजनीतिक वर्ग लोगों को निराश और बेसहारा करते हैं, समाज में भाईचारा और मेल-मिलाप से रहने के दूसरे सहारों और उपायों को तलाशा जाता रहा है। इतिहास गवाह है कि सूफी-संतों ने समाज में प्रेम, सहिष्णुता और शांति का पाठ पढ़ाया है। ऐसा समाज के हर वर्ग ने माना है, इसलिए ऐसा कम ही हुआ है कि दंगों के दौरान किसी सूफी की मजार में आग लगा दिया गया हो। 

बेकसूर लोगों के खून की होली खेले जाने वाले इस दौर में, हम फिर सूफियों की जिंदगी और उनके द्वारा दी गयी शिक्षा से सबक ले सकते हैं। दिल्ली के संतों में मशहूर हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के आस्ताने में जाकर कुछ रूहानी तस्कीन हासिल किया जा सकता है। अमीर खुसरौ और दूसरे शायरों और कव्वालों को सुन कर भी थोड़ी राहत मिलती है। निज़ामुद्दीन औलिया के रूहानी वार्तालाप या मलफ़ूज़ात, अमीर हसन सिजज़ी द्वारा संकलित फ़वायद-उल-फ़ुआद, दिल और दिमाग दोनों को फ़ायदे पहुंचाते हैं। हम यहाँ फ़वायद-उल-फ़ुआद की चौथी जिल्द में शामिल 40वीं मजलिस की रूदाद पेश करते हैं। अमीर हसन सिजज़ी ने लिखा है कि रमज़ान के महीने की चौथी तारीख (717 हिजरी) जुमेरात को क़दम-बोसी की सआदत नसीब हुई। और उस दिन होने वाली तमाम चर्चा को इस तरह समेटा है कि बहुत सी बातें आज भी हमारे लिए इबरत का सबब बन सकती हैं। इसे पढ़िए। 

जमाअतखाने में एक तालिब-इल्म, विद्यार्थी, हाजिर हुआ। ख्वाजा ने उसका हाल पूछा। उसने जवाब दिया कि मैंने तालीम तो पूरी कर ली है। अब शाही महल में आना-जाना शुरू किया है ताकि रोटी मिले और फ़राग़त हासिल हो। जब वह वापस चला तो ख्वाजा ने यह दो मिसरे ज़बाने-मुबारक से इरशाद फ़रमाया:

शेर दर वस्फ़े हाल बस सीररहु इस्त 
चुन बेख़्वाहिश रसीद मस्ख़रे इस्त 

(कैफ़ियात के इज़हार के लिए तो शेर बड़ी पाकीज़ा और खरी चीज है, लेकिन हवस तक पहुंचे तो मसख़रापन है।)

फिर फ़रमाया कि शेर एक लतीफ़ चीज है, लेकिन जब इसके ज़रिए क़सीदा-ख़्वानी, या सत्ता पर क़ाबिज़ लोगों का महिमा-मंडन करें, और हर कसो-नाकिस तक ले जाएं, तो यह सख्त बेज़ौक़ी भी है। और इसी तरह इल्म भी खुद अपनी जगह बहुत आला चीज है। लेकिन जब इसको रोज़ी का ज़रिया बनाएं और दरवाजे-दरवाजे फिरें तो इसकी इज़्ज़त भी जाती रहती है। 

इसी दौरान मुरीदों में से एक गुलाम लड़का हाजिर हुआ और एक हिन्दू को अपने साथ लाया और अर्ज़ किया कि यह मेरा भाई है। जब वह दोनों बैठ गए तो ख्वाजा ने उस गुलाम से पूछा कि तुम्हारा यह भाई कुछ इस्लाम से भी रग़बत रखता है? उसने अर्ज़ किया कि इसको इसी बात के लिए मखदूम की खिदमत में लाया है कि मखदूम की नजर की बरकत से मुसलमान हो जाए। ख्वाजा आँखों में आंसू भर लाए और इरशाद किया कि किसी के कहने से इस कौम का दिल नहीं बदला करता। अलबत्ता अगर किसी नेक आदमी की सुहबत मिल जाए तो उम्मीद होती है कि उसकी बरकत से मुसलमान हो जाए। 

इसके बाद यह हिकायत बयान फरमाई कि जब खिलाफत हजरत उमर को मिली, तो उनकी इराक के बादशाह से जंग हुई और उस जंग में इराक का बादशाह गिरफ्तार हो गया। उसको उमर के सामने पेश किया गया। उन्होंने फरमाया कि अगर तुम मुसलमान हो जाओ तो मैं इराक तुम्हीं को बख्श देता हूँ। उस बादशाह ने कहा कि मैं इस्लाम नहीं लाऊंगा। उमर ने कहा: इस्लाम या तलवार! अगर इस्लाम कबूल नहीं करोगे तो मैं तुम्हें कत्ल कर दूंगा। बादशाह ने कहा कत्ल कर दें, मैं इस्लाम कबूल नहीं करता। 

उमर ने तलवार लाने और जल्लाद को बुलाने का हुक्म दिया। वह बादशाह बहुत ही चालाक और समझदार था। जब उसने यह सूरत-ए हाल देखी तो उमर से मुखातिब होकर बोला कि मैं प्यासा हूँ मुझे पानी पिलाने का हुक्म दीजिए। उमर ने पानी लाने का हुक्म दिया। पानी शीशे के बर्तन में डालकर लाया गया। बादशाह ने कहा कि वह इस बर्तन में पानी नहीं पियेगा। उमर ने कहा कि यह बादशाह रहा है इसके लिए सोने-चांदी के बर्तन में पानी डाल कर लाओ, और ऐसा ही किया गया। जब भी उसने पानी नहीं पिया और कहा कि मेरे लिए मिट्टी के बर्तन में पानी भर कर लाओ। इस तरह मिट्टी के कुल्हड़ में पानी भर कर उसके हाथ में दिया गया। 

फिर बादशाह ने उमर की तरफ रुख कर के कहा कि मुझसे वादा कीजिए कि जब तक मैं यह पानी पी न लूँ, मुझे कत्ल नहीं करेंगे। उमर ने फरमाया मैं वादा करता हूँ कि जब तक तुम यह पानी पी नहीं लोगे, तुम्हें कत्ल नहीं करूँगा। बादशाह ने मिट्टी के उस कुल्हड़ को जमीन पर दे मारा, कुल्हड़ टूट गया और सारा पानी बह गया। उस वक्त उमर से बोला कि मैंने यह पानी नहीं पिया है। आपने अहद किया था कि जब तक मैं यह पानी नहीं पीता आप मुझे कत्ल नहीं करेंगे। अब मेरे लिए अमान होनी चाहिए। उमर को बादशाह की चालाकी पर बहुत ताज्जुब हुआ और उसको माफी देना मान लिया। इसके बाद उसे एक दोस्त के साथ कर दिया। वह दोस्त बहुत ही नेक और सलाहियत वाले थे। जब इराक के बादशाह को उन दोस्त के घर ले गए तो ज्यादा अरसा नहीं गुजरा था कि वहां की अच्छी सुहबत ने उन पर असर किया। जल्द ही, बादशाह ने उमर की खिदमत में पैगाम भेजा कि मुझे अपने पास बुलाइये कि ईमान ले आऊं। 

हज़रत उमर ने बादशाह को तलब फरमाया और उसके सामने इस्लाम पेश किया। वह मुसलमान हो गया। जब वह इस्लाम ले आया तो उमर ने फरमाया कि अब मैं तुम्हें इराक का मुल्क अता करता हूँ। बादशाह ने जवाब दिया कि अब हुकूमत मेरे काम नहीं आएगी। मुझे तो मुल्क इराक में से एक गांव दे दीजिए जो मेरे खर्च को काफी हो। उमर ने गांव देना कबूल फरमा लिया। इस बीच बादशाह ने कहा कि मुझे ऐसा गांव चाहिए जो वीरान हो ताकि मैं उसे आबाद कर लूँ। उमर ने आदमियों को इराक के इलाके में भेजा और सारे इराक में तलाश करा लिया, मगर वीरान गांव कोई न मिला। उमर ने बादशाह को सारा हाल बताया कि पूरे इराक में एक गांव भी गैर-आबाद नहीं मिला। बादशाह ने कहा कि मेरा मकसद इस बात से यही था कि मैंने इराक को ऐसा आबाद आपके हवाले किया है, अगर कोई बस्ती उजड़ गई तो कल कयामत के दिन जवाब आपको देना होगा। यह किस्सा सुनाते हुए ख्वाजा निज़ामुद्दीन औलिया के आँखों में आँसू आ गए और उस बादशाह की होशियारी व समझदारी की बड़ी तारीफ फरमाई। 

इस मौके पर ख्वाजा ने इस्लाम और मुसलमानों में सच्चाई और ईमानदारी के हाल पर यह हिकायत बयान फरमाई कि एक यहूदी का घर ख्वाजा बायज़ीद बुस्तामी के घर के पड़ोस में था। जब ख्वाजा बायज़ीद बुस्तामी का इंतकाल हो गया तो उस यहूदी से पूछा गया कि तुम मुसलमान क्यों न हुए? यहूदी बोला कि कौन सा मुसलमान बनूँ? अगर इस्लाम वह है जो बायज़ीद का इस्लाम था तो ऐसा इस्लाम मेरे बस का नहीं है और अगर इस्लाम यह है जिसका नमूना तुम लोग हो तो ऐसे इस्लाम से मुझे शर्म आती है। 

निष्कर्ष: सूफियों की यह हिकायात लोगों को अपने गिरेबान में झाँकने के लिए मजबूर करती हैं, ताकि वह अपने दिलो-दिमाग को ठिकाने में रखकर अच्छे इंसान बन सकें। ज़ुल्म और ज़ोर-ज़बरदस्ती की तलवार भी ज़्यादा दिन राज नहीं कर सकती। देश और समाज को कुछ लोग तोड़ने का काम करते हैं, और कुछ जोड़ने का। सूफियों ने जोड़ने का काम किया है, और इसलिए हर दौर में जुल्म के शिकार लोग उनकी पनाह में शरण लेते रहे हैं। 


सन्दर्भ-ग्रन्थ: फ़वायद-उल-फ़ुआद, हज़रत ख्वाजा निज़ामुद्दीन औलिया के रूह परवर मलफ़ूज़ात, फ़ारसी में अमीर हसन सिजज़ी द्वारा संकलित और ख्वाजा हसन सानी निज़ामी द्वारा उर्दू में अनुदित, दिल्ली: उर्दू अकादमी, 1990. 

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