दस्तंबू, यानि मेरे हाथों की मिठास भरी खुशबू

गदर के वाकियात और आखिरी मुगल शायर मिर्जा गालिब की अजीबो-गरीब कशमकश की दास्तान 

रज़ीउद्दीन अक़ील 

(प्रोफेसर मज़हर महदी को समर्पित)


"जब यह मुसल्लम है कि आसमान की गर्दिश हुक्मे खुदा के ताबे है तो फिर आसमान जो कुछ दे हम उसको जुल्म कैसे कह सकते हैं।"

दिल्ली के आखिरी मुगल शायर मिर्जा असदुल्लाह खाँ गालिब (1797-1869) ने 1857-58 के सिपाही विद्रोह के जमाने में, 11 मई 1857 से 30 जुलाई 1858 के बीच, हुए राजनीतिक उथल-पुथल और उपद्रव से उत्पन्न उनकी अपनी बदहाली की रूदाद अपनी डायरी-नुमा किताब, दस्तंबू, में निहायत बेचारगी के साथ पेश किया है। पंद्रह महीने के उस पुर-आजमाईश दौर में, खास तौर से इसलिए भी कि अंग्रेजी सरकार से मिलने वाला उनका फैमिली पेंशन (जिसका जिक्र आगे आएगा) बंद कर दिया गया, मिर्जा गालिब को सख्त तंग-दस्ती और मजबूरी से दो चार होना पड़ा। हालांकि गदर से पहले के दिल्ली शहर में गालिब के हजारों दोस्त थे और हर घर में शनासा या परिचित मौजूद थे, इन पंद्रह महीनों ने उस पुरानी दुनिया को एक विघटनकारी जलजले या भुकम्प की तरह तहस-नहस करके छोड़ दिया। 

जैसा कि गालिब जैसे शायर और लेखक से अपेक्षा की जाती है, उन्होंने उस तन्हाई में "जब कलम के सिवा कोई हम-जुबान और अपने साये के अलावा कोई साथी न था", कई बड़ी घटनाओं और मुद्दों को कलमबंद करते रहे। गालिब ने 1 अगस्त 1858 को इस बात पर जोर देते हुए अपने कलम को रोक लिया कि अंग्रेज सरकार उनकी तीन ख्वाहिशों को पूरी कर दे - खिताब, खिलअत और पेंशन। शायर की लाचारी देखिए, कहते हैं कि अगर मलका-ए आलम (विक्टोरिया) की बख्शिश से मैं कुछ हासिल कर लूँगा तो इस दुनिया से नाकाम नहीं जाऊँगा:

"जब बात यहाँ तक पहुँची तो मैं खामोश हो गया। 
मैं दास्तान कहना नहीं चाहता हूँ।"

मुकम्मल होने के बाद, गालिब ने इस किताब का नाम दस्तंबू, यानि मेरे हाथों की खुशबू, रखा। उन्होंने लिखा है कि यह किताब लोगों को दी गयी और इधर-उधर भेजी गई ताकि "साहिबाने इल्मो-दानिश की रूह को तसकीन बख्शे और इंशा-परदाज (उनके लिखने के अंदाज पर) फरेफ्ता या फिदा हो जाएँ।" उन्होंने यह कहते हुए अपनी बात खत्म किया कि यह मजमुआ-ए दानिश (दस्तंबू) इंसाफ-पसंद लोगों के हाथों में गुलदस्ता-ए पुर रंगो-बू, अर्थात रंगीन और खुशबूदार गुलदस्ता के मानिंद होगा और शैतान फितरत लोगों की निगाहों में आग का गोला!

भारतीय सैनिकों का विद्रोह और अंग्रेजों पर हमला एवं अंग्रेजी शासन की जघन्य कार्रवाई ने साठ-बासठ साल के बूढ़े गालिब को बुरी तरह प्रभावित किया। घर और बाहर की तबाही और बेकसी की भयावह रूदाद दस्तंबू के हर पन्ने पर अयाँ है। गालिब लिखते हैं कि अगर उनके हिंदू दोस्तों, शागिर्दों और जानकार लोगों में से चार-पाँच लोग, जिनमें महेश दास और हरगोपाल तफ्ता शामिल हैं, उनकी मदद के लिए आगे नहीं आते तो कोई शख्श उनकी बेकसी का गवाह भी न होता। महेश दास ने न केवल गालिब का ख्याल रखा बल्कि अंग्रेजों द्वारा शहर से मुसलमानों के उजाड़े जाने की प्रक्रिया को रोकने की नाकाम कोशिश भी किया। खुद अपने बारे में गालिब लिखते हैं कि सच्ची बात यह है कि "वह आधे-अधूरे मुसलमान हैं, मजहबी पाबंदियों से आजाद और बदनामी व रुस्वाई के रंज-डर से बे-नियाज। सच्ची बात को छुपाना अच्छे लोगों का तरीका नहीं है। हमेशा से रात में सिर्फ विलायती शराब पीने की आदत थी। विलायती शराब नहीं मिलती थी तो नींद नहीं आती थी। आजकल जबकि अंग्रेजी शराब शहर में बहुत महंगी है और मैं बिल्कुल मुफलिस हूँ, अगर खुदा-दोस्त, खुदा-शनास, फैयाज, दरिया-दिल महेश दास देशी शराबे-कंद जो रंग में विलायती शराब के बराबर और बू में उससे बढ़कर है भेज कर आतिशे-दिल को सर्द न करते तो मैं जिंदा नहीं रहता।" इस बीच गालिब ने यह भी लिखा है कि सब जानते हैं कि शहर में हिन्दुओं का आजादी से रहना मेहरबान हाकिमों की मोहब्बत और मेहरबानी का नतीजा है। 

बगावत के खिलाफ बदले की गाज मुसलमानों पर गिरी थी। गालिब लिखते हैं कि हालांकि उनका घर लूट मार करने वालों से महफूज रहा, लेकिन "मैं कसम खा सकता हूँ कि बिस्तर और पहनने के कपड़ों के अलावा घर में कुछ नहीं रहा।" इस बदहाली के पीछे की हकीकत यह है कि जिस वक्त बागियों ने (गालिब ने उन्हें काले की संज्ञा दी है) शहर पर कब्जा किया, उनकी पत्नी ने उन्हें बताए बगैर कीमती चीजें, जेवर वगैरह, जो कुछ था खुफिया तौर पर काले साहेब पीरजादा के यहाँ भेज दिया। वहाँ तह-खाने में महफूज कर दिया गया और दरवाजा मिट्टी से पाट दिया गया। जब विजयी अंग्रेजों ने शहर को फतह किया और सिपाहियों को लूट मार का हुक्म मिल गया तब गालिब की बेगम ने यह राज उनसे कहा। गालिब लिखते हैं: "वक्त निकल चुका था, वहाँ जाने और सामान लाने की गुंजाईश नहीं रही थी। मैं खामोश हो गया और दिल को समझा लिया कि यह चीजें जाने वाली थीं, अच्छा हुआ कि मेरे घर से नहीं गयीं।" जैसा के अंदेशा था पीरजादे की हवेली अंग्रेजी सिपाहियों की दस्तदराजी की शिकार हो गयी।

गालिब आगे लिखते हैं कि अब यह जुलाई का पन्द्रहवाँ महीना है (मई 1857 से लेकर), पुरानी पेंशन जो अंग्रेजी सरकार से मिलती थी उसके मिलने का कोई जरिया नहीं निकला। दुश्वारी का आलम देखिए: "बिस्तर और कपड़े बेच-बेचकर जिंदगी गुजार रहा हूँ; गोया दूसरे लोग रोटी खाते हैं, मैं कपड़े खाता हूँ; डरता हूँ कि कपड़े सब खा लूँगा, तब आलमे बरहंगी, नंगे हालत में, भूख से मर जाऊँगा।" घर में गालिब अकेले नहीं थे। बीवी और उनके रिश्तेदारों के दो मासूम बच्चों के अलावा, "इस कयामत में पुराने नौकरों में से दो-तीन नौकर मेरे पास से नहीं गए, उनकी भी परवरिश करना है; इंसाफ की बात तो यह है कि आदमी आदमी के बगैर नहीं रह सकता; नौकर के बिना कोई काम नहीं हो सकता।" उनके अतिरिक्त, दूसरे जरूरतमंद जो हमेशा से गालिब से कुछ न कुछ फायदा उठाने के आदी थे, उस बुरे वक्त में भी मदद की गुहार लगा कर गालिब को उनकी बदहाली की तकलीफदेह एहसास दिलाते रहे। 

गालिब के अनुसार, उनकी यह किताब इस बात की गवाह बनेगी कि इस कश्मकश का अंजाम या तो मौत है या भीख माँगना। मौत की सूरत में अधूरी किताब पढ़ने वालों के दिलों को गमजदह करेगी, और जिंदा बचे तो "सारी दास्तान में इसके सिवा और कुछ नहीं होगा कि फलाँ गली से सरे-बाजार धुतकार दिया गया और फलाँ दरवाजे पर कुछ मिल गया। फिर यह बातें कब बयान की जा सकती हैं और अपने आपको कहाँ तक रुस्वा किया जा सकता है। बाकी पेंशन अगर मिल गई तब भी जिस तरह आईना जंग से साफ नहीं हो सकता, उसी तरह दिल गम से। अगर नहीं मिली तो इस सूरत में शीशा चूर-चूर हो जाएगा। तबाही यकीनी है और सबसे ज्यादा अजीब बात यह है कि दोनों हालत में चूंकि देहली की आबो-हवा मुसीबत-जदह लोगों को रास नहीं आती, यहाँ से भागकर किसी दूसरे शहर में रहना पड़ेगा। इस तरह, जिस्मानी तकलीफों और रुहानी बेचैनियों ने जिस्मो-जान को तबाह कर दिया है।"

मौके की मुनासिबत से गालिब ने अपनी जिंदगी और काम पर भी रौशनी डालकर इस डायरी को आत्मचरित का रूप देते हुए एक बहुमूल्य ऐतिहासिक परिप्रेक्ष प्रदान किया है। गालिब कहते हैं कि "इस साल (1857) मेरी जिंदगी का बासठवाँ साल शुरू हुआ। इतनी मुद्दत से मैं इस दुनिया में खाक छान रहा हूँ और पचास बरस से शेरो-शायरी में मसरूफ हूँ। मेरी उम्र पाँच साल की थी कि मेरे वालिद अब्दुल्लाह बेग बहादुर का इंतकाल हो गया। चचा नसरुल्लाह बेग खाँ बहादुर ने मुझको अपना बेटा बना लिया और लाड-प्यार से परवरिश की। जब मेरी उम्र नौ साल की थी तो मेरे चचा, जो मेरे सरपरस्त भी थे, मौत की गहरी नींद सो गए, गोया मेरी किस्मत सो गई।" गालिब के चचा चार सौ सवारों के सरदार और अंग्रेज जनरल लॉर्ड लेक बहादुर के वफादारों में से थे। लार्ड लेक की मेहरबानी से वह आगरे के करीब दो परगनों के हाकिम और मालिक थे। उनके देहांत के बाद अंग्रेजी हुकूमत ने दोनों परगने वापस ले लिए। उस जागीर के बजाय, गालिब और उनके छोटे भाई, मिर्जा यूसुफ, के खर्च के लिए एक मासिक वजीफा मुकर्रर कर दिया गया। 

जमाने की गर्दिश देखिए कि अप्रैल 1857 तक का मासिक भत्ता कलक्टरी देहली के खजाने से लगातार मिलता रहा। मई महीने में उठे विद्रोह के साथ ही उस खजाने का दरवाजा बंद हो गया। गालिब के मुताबिक, "अब मैं बदनसीबी से दो चार हूँ और दिल तरह-तरह के परेशान-कुन ख्यालात का मसकन। इससे पहले सिर्फ बीवी थी (जो मेरी तबाही की जिम्मेदार है), न कोई लड़का था न लड़की। तकरीबन पाँच साल हुए कि मैंने अपनी बीवी के खानदान के दो बिना माँ-बाप के बच्चों को लेकर पाल लिया है। इन शीरीन जुबान बच्चों से मुझको बे-इंतहा मोहब्बत है। इस बेचारगी के आलम में दोनों बच्चे मेरे साथ हैं और मेरे दामन व गिरेबान के फूल जैसे हैं।" गालिब ने निहायत अफसोस के साथ आगे लिखा है कि "बड़े नाज से पले हुए दोनों बच्चे फल, दूध और मिठाई माँगते हैं, लेकिन उनकी ख्वाहिश पूरी करना मेरे बस में नहीं। अफसोस, जबतक जिंदा हूँ रोटी और पानी की फिक्र रहेगी और मरने के बाद कफन-दफन की।"

एक और बड़ा मसला जो गालिब को पिछले तीस सालों से सता रहा था, वह भाई यूसुफ जो गालिब से दो साल छोटे थे की दीवानगी। तीस साल से दीवानगी में जी रहे यूसुफ ने न कभी किसी को सताया और न शोरो-गोगा किया, लेकिन उनकी बीवी और बच्चों ने घर से भाग जाने में ही अपना भला समझा था। गदर के जमाने में गालिब का भाई को नहीं देख पाना तकलीफदेह रहा: "यह बहुत बड़ा गम है और मेरे दिल पर इसका बहुत असर है।" यूसुफ का मकान गालिब के घर से दो हजार कदम के फासले पर था, लेकिन गालिब उनकी मदद करने की हालत में न थे: "मैं दिन-रात इस फिक्र में रहता हूँ कि भाई ने दिन में क्या खाया होगा और रात में कैसे सोया होगा, और हालात से नावाकफियत का यह आलम है कि यह भी नहीं कह सकता हूँ कि भाई जिंदा भी है या मुसीबतें उठाते-उठाते मर गया।"

अभी गालिब अपनी दर्द भरी दास्तान सुनाकर अंग्रेजों से अपने परिवार के लिए इंसाफ माँग ही रहे थे कि 21 सितम्बर 1857 को मिर्जा यूसुफ के घर की ताराजी की खबर आई। शहर के फतह के सत्रहवें दिन अंग्रेज सिपाहियों ने गली और घरों में लूटपाट की और यूसुफ के घर पर चढ़ दौड़े, हालांकि यूसुफ और उनकी देखभाल करने वाले बूढ़े दरबान और बूढ़ी नौकरानी को किसी तरह का शारीरिक नुकसान नहीं पहुँचाया। अंग्रेज सिपाहियों की तथाकथित अमन-पसंदी की तारीफ करते हुए गालिब ने लिखा है कि "मैं जानता हूँ के इस यलगार या कार्रवाई में हुक्म यह है कि जो शख्स आज्ञा का पालन करे उसे कत्ल न किया जाए, सिर्फ उसका माल छीन लिया जाए। और जो शख्स मुकाबला करे, माल के साथ-साथ उसकी जिंदगी भी छीन ली जाए।" गालिब के अनुसार, आम तौर पर मशहूर था कि अंग्रेज सामान लूट लेते हैं, हत्या नहीं करते, हालांकि दो-तीन इलाकों से यह भी खबर मिली कि पहले जान लेवा हमला किया फिर सामान लूटा, और यहाँ तक कि मासूम बच्चों, कमजोर बूढ़ों और बेसहारा औरतों को भी मौत के घाट उतार दिया। इस तरह, हर तरफ लोग कत्ले-आम के खौफ से डरे और सहमे हुए थे। इस बीच, जिसका डर था, सोमवार 19 अक्तुबर 1857 को, "जिसका नाम हफ्ते के रजिस्टर से काट देना चाहिए", मिर्जा यूसुफ के बूढ़े दरबान ने खबर लाई कि वह पाँच दिनों तक तेज बुखार से ग्रस्त रहकर पिछली रात इस दुनिया से रुखसत हो गए। शहर की जो हालत थी मैयत का इस्लामी तरीके से कफन-दफन आसान न था। लाचार, गालिब ने कुछ पड़ोसियों और नौकरों की मदद से अपने दीवाने भाई को उनके घर के बगल वाली मस्जिद के अहाते में दफन कर दिया और गढ़े को पाट कर अपने घर लौट आए। 

शहर में कत्लो-गारत और बेशुमार फांसियों के बीच गालिब अब भी उम्मीद का दीया जलाए बैठे खूने जिगर पीते थे। यूसुफ के देहांत के दो हफ्ते पहले, 5 अक्तुबर को, दोपहर के वक्त चंद गोरे दीवारों और छतों को फांदते हुए गालिब के घर में घुस आए थे। इस सानेहा की रूदाद सुनिए खुद गालिब की जुबानी: "उन गोरों ने भल-मंसी से सामान को हाथ नहीं लगाया। मुझको उन दोनों बच्चों, दो-तीन नौकरों और कुछ नेक-किरदार पड़ोसियों के साथ गली से दो फरलांग से कुछ ज्यादा फासले पर हकीकत-पसंद, दानिश्वर कर्नल ब्राउन के पास ले गए, जो चौक से इसी तरफ कुतबुद्दीन सौदागर की हवेली में मुकीम है। कर्नल ब्राउन ने मुझसे बहुत नरमी व इंसानियत से बातचीत की। मुझसे नाम और दूसरों से पेशा पूछा, और खुश-असलूबी के साथ उसी वक्त रुखसत कर दिया। मैं ने खुदा का शुक्र अदा किया, उस खुश-अखलाक (कर्नल ब्राउन) की तारीफ की और चला आया।"

बिगड़े हुए हालात में जबकि विद्रोही गिरोह अभी भी कई शहरों में सरगर्म थे, गालिब उनकी कठोर निंदा करते हुए लिखते हैं कि बागियों के बहुत से गिरोह बरेली, फर्रुखाबाद और लखनऊ में जगह-जगह शोरिश फैलाने और बे-फायदे मुकाबला करने में मसरूफ हैं। उधर सोहना और नूह के इलाकों में भी मेवातियों ने बेतरह उपद्र मचा रखा है, माना दीवाने जंजीरों से आजाद हो गए हों। गालिब को अंदेशा था कि अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष जितना मजबूत होगा, अंग्रेजी दमन उससे भी ज्यादा निरंकुश होता चला जाएगा। वह विद्रोहियों को कोसते हैं: "उनके दिल खुदा करे खून हो जाएँ, और उनके हाथ जो लड़ाई के लिए खुले हैं खुदा करे बेकार हो जाएँ।" खुद अपनी बेकसी का रोना रोते हुए गालिब लिखते हैं कि जिस दिन गोरे उन्हें पकड़ ले गए थे उस दिन के इलावा चौखट पर कदम रखना, घर से बाहर निकलना, गली या बाजार में चलना, या दूर से चौक को देख लेना नसीब नहीं हुआ है। गोया गंजों के दानिश्वर, निजामी गंजवी, ने गालिब की ही जुबान से कहा है:

"मैं नहीं जानता हूँ दुनिया में क्या हो रहा है। 
क्या अच्छाई हो रही है, क्या बुराई।"

इन ला-ईलाज गमों और न भरने वाले जख्मों के पेशेनजर, "मुझको यह सोचना चाहिए कि मैं मर चुका हूँ। मुझको (अंग्रेजों द्वारा) पूछताछ के लिए उठाया गया है और बद-अमली की सजा के रूप में दोजख के कूएँ में लटका दिया गया है। मजबूरन इस कैद में बेचारगी और परेशानी के साथ हमेशा जीना पड़ेगा।"

आखिर गालिब का जुर्म क्या था? अंग्रेजों को मालूम था कि गालिब न सिर्फ एक मशहूर शायर थे बल्कि मुगल दरबार से जुड़े इतिहासकार भी। नया सियासी निजाम पिछले दौर के सरकारी इतिहासकारों की पीठ तोड़कर नया इतिहास लिखवाता है। गालिब ने अपनी तरफ से पूरी कोशिश की कि अंग्रेज उन्हें स्वीकार करें। उन्होंने 1857 के विद्रोह का विरोध इसी उद्देश्य से किया। लेकिन अफसोस के कुछ न दवा ने काम किया, सब तदबीरें नाकाम साबित हुईं। इतिहासकारों को गालिब की त्रासदि से सबक हासिल करने की जरूरत है। खुद उनकी मिन्नत-समाजत सुनते हैं: "इस किताब के पढ़ने वाले यह समझ लें कि मैंने, जिसकी कलम की जुंबिश से कागज पर अल्फाज के मोती बिखर जाते हैं, अंग्रेजी हुकूमत के नानो-नमक से परवरिश पाई है और बचपन से ही पूरी दुनिया पर अपना सिक्का जमाने वाले इन लोगों के दस्तर-ख्वान से दाने चुंगे हैं।"

लेकिन जिस चीज ने अंग्रेजों को गालिब के ताल्लुक से बदजन कर दिया वह यह था कि गालिब एक साथ दो नाव पर सवार थे। उन्होंने इस तरह सफाई पेश किया है कि: "सात-आठ साल हुए कि बादशाह देहली ने मुझे बुलाया और मुझसे फरमाईश की कि मैं तैमूरी खानदान की तारीख या इतिहास लिखूँ, जिसके एवज में 600 रुपये सालाना वजीफा दिया जाएगा। मैंने इस खिदमत को कबूल कर लिया और काम में मशगूल हो गया। कुछ अरसे के बाद बादशाह के उस्ताद (जौक देहलवी) का इंतकाल हो गया और बादशाह द्वारा कहे गए शेर की इस्लाह या सुधार का काम भी मुझे दे दिया गया।" इस तरह, गालिब न सिर्फ मुगलों का इतिहास लिख रहे थे, बल्कि शायरी में बहादुरशाह जफर के उस्ताद की हैसियत रखते थे। गदर के दौरान और उसके कुचल दिए जाने के बाद, मुगल बादशाह के उस्ताद के अंजाम का अंदाजा लगाया जा सकता है। निःसंदेह, अंग्रेज उनके साथ नरमी से पेश आए, हालांकि उनका पेंशन दोबारा जारी न हो सका। 

किले में नौकरी का जिक्र करते हुए गालिब ने अपना बचाओ इस तरह से किया है कि वह बूढ़े और कमजोर हो चले थे, और गोशए-तन्हाई में बैठने और आराम करने के आदी। इसके साथ-साथ बहरेपन की वजह से लोगों की बातों को ठीक से सुनने से भी कासिर। कहते हैं: "मजबूरन हफ्ते में एक-दो बार किले में जाता था। अगर बादशाह महल से बरआमद होते थे तो कुछ देर उनकी खिदमत में हाजिर रहता था, वरना दीवाने-खास में कुछ देर बैठकर चला आता था। इस मुद्दत में जितना काम मुकम्मल हो जाता उसको अपने साथ लिए जाता था या किसी के हाथ भेज देता था। यह था दरबार से मेरा ताल्लुक और मेरा काम।" गालिब द्वारा लिखे जाने वाले इतिहास के वह पन्ने अब नायाब हो चुके होंगे या गदर की आग का शिकार। कितना अच्छा होता कि वह इतिहास मुकम्मल हुआ होता और आज हम उसे पढ़ पाते। गालिब ने लिखा है कि "यह तेज रफ्तार आसमान इस ख्याल में डूबा हुआ था कि एक नए इंकलाब का खाका बनाए और मेरे उस सुकून और आराम को जो हर किस्म की गंदगियों से पाक था, तबाह कर दे।"

11 मई 1857 को अचानक देहली के किलों और फसीलों की दीवारें लरज उठीं, जिसका असर चारों तरफ फैल गया। मेरठ की फौज के "नमक-हराम" और "जालिम" सिपाही शहर में घुस आए और जहाँ कहीं भी अंग्रेज अफसरों पर नजर पड़ी उनको मार डाला और उनके मकानों को पूरी तरह तबाह व बर्बाद कर दिया। वह मिसकीन और सुलह-पसंद लोग जिनको अंग्रेजी हुकूमत से कुछ नानो-नमक प्राप्त था, हर गली कूचे में पाए जा सकते थे, अपने आपको मजबूर समझकर गमगीन और मातम-जदह अपने घरों में बैठे रहे। गालिब कहते हैं कि: "उन्हीं गमजदह लोगों में से एक मैं भी हूँ। मैं अपने घर में बैठा हुआ था कि शोरो-गोगा सुना। चाहता था कि कुछ मालूम करूँ कि इतने में शोर मच गया कि किले के अंदर साहेब एजेंट बहादुर और किलेदार कत्ल कर दिए गए। हर तरफ से पियादों और सवारों के दौड़ने की आवाजें बुलंद होने लगीं। जमीन हर तरफ अंग्रेजों के खून से रंगीन हो गयी। बाग का हर गोशा वीरानी और बर्बादी के सबब से बहारों का कब्रिस्तान बन गया।"

काश! जिस तरह गालिब ने अंग्रेजों के मारे जाने पर इजहारे अफसोस किया है, विद्रोहियों की मजम्मत की है और खुद अपनी बेबसी का रोना रोया है, दिल्ली पर अपना वर्चस्व स्थापित करते हुए और उसके बाद भी अंग्रेजी शासक गालिब और उन जैसे तमाम लोगों की नेक-नियत समर्थन को कबूल कर लेते। उन पंद्रह महीनों की रूदाद, जिनके कुछ अंश इस लेख में पेश किए गए हैं, इस बात की अक्कासी करते हैं कि बगावत के कुचल दिए जाने के साथ ही पुराने मुस्लिम समाज के अशराफ तबकों को यह एहसास दिला दिया गया कि अब जमाना बदल गया है और नए दौर में वक्त के साथ दौड़ना उनके लिए आसान नहीं होगा। विशेषकर, गालिब की त्रासदि की यह दास्तान दिल को दहला देने वाली बेचारगी से लबरेज है। गालिब रोते रहे:

"दिले नादान तुझे हुआ क्या है 
आखिर इस दर्द की दवा क्या है। 

हम हैं मुश्ताक और वह बे-जार 
या इलाही यह माजरा क्या है। 

मैंने माना कि कुछ नहीं गालिब 
मुफ्त हाथ आए तो बुरा क्या है।"

गालिब के नुक्तए-नजर से देखें तो अफसोस की बात है कि अंग्रेजों का एतमाद हासिल करने की उनकी तमाम कोशिशें नाकाम साबित हुईं। वहीं दूसरी ओर, 1857 के विद्रोह की मजम्मत करने के सबब बाद के राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने भी, जिनकी कई धड़ें हैं, गालिब से अपना पल्ला झाड़ लेना मुनासिब समझा है। शुक्र है उर्दू साहित्य और उसके इतिहास के अध्ययन करने वाले स्कॉलर्स का कि उन्होंने गालिब के नाम और अस्मिता को बचाए रखा है। 

तमाम समस्याओं से झुझते हुए गालिब अपनी आईकोनोक्लास्टिक शिनाख्त पर अडिग रहे:

"होगा कोई ऐसा भी कि 'गालिब' को न जाने 
शायर तो वह अच्छा है पे बदनाम बहुत है।"

फुटनोट: 

गालिब की शायरी के बहुआयामी पहलुओं को समझने के लिए गोपी चंद नारंग का विद्वतापूर्ण विश्लेषण विशेष रूप से सराहनीय है। 

संदर्भ-ग्रन्थ:

गालिब , असदुल्लाह खाँ, दस्तंबू, फारसी से उर्दू तर्जुमा, ख्वाजा अहमद फारुकी, नई दिल्ली: तरक़्क़ी उर्दू ब्यूरो, 2000. 

नारंग, गोपी चंद, गालिब: इनोवेटिव मीनिंग्स एंड द इंजीनियस माइंड, ट्रांसलेटेड फ्रॉम उर्दू बाई सुरिंदर देओल, नई दिल्ली: ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 2017. 



Comments

  1. गालिब के बारे में कुछ कुछ पढ़ा है पर 1857 और उनकी जीवनी के संदर्भ और मायने में नहीं. शायद गालिब होने का दर्द उस काल में एक बुद्धिजीवी होने का दर्द है और उस काल में ही क्यों , जैसा कि आपकी कलम से लगता है, यह हर काल में सत्ता से बुद्धिजीवी का संबंध है. एक नए नजरिएन के लिए बहुत बहुत शुक्रिया.

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