महात्मा गांधी की यादगार

मतभेद और असहमतियों के बावजूद मिल-जुलकर काम करने की अद्भुत क्षमता थी गांधीजी में

रजीउद्दीन अकील

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महात्मा गांधी की हत्या के तुरंत बाद से ही दुनिया उनके विचारों और आदर्शों को संजोने के तरीके तय कर रही थी। कांग्रेस कार्यसमिति ने भी उनकी याद में स्मारक बनाने के लिए छह सदस्यीय समिति का गठन किया था। हालांकि उनके कामों से संबंधित दस्तावेजों को इस तरह संरक्षित करने को लेकर कुछ बातें तय की गईं जिससे आने वाली पीढ़ियां उनसे प्रेरणा लेती रहें, मौलाना आजाद ने नई दिल्ली के कंस्टीच्यूशन क्लब में फरवरी, 1948 में हुई आम सभा में जो बातें कहीं, उसकी कई बातें भुला दी गईं। गांधीजी की हत्या के कुछ दिनों बाद ही हुई इस आम सभा की उन्होंने अध्यक्षता की थी और उर्दू में एक जोरदार भाषण दिया था। मौलाना आजाद के इस भाषण को कई कारणों से आज फिर पढ़ने-सुनने की जरूरत है। यूट्यूब पर इसे सुना जा सकता है: 

https://youtu.be/xXX2T7geczU

मौलाना ने कहा कि लोगों ने खुद ही बहुत सी सीमाएँ और पहचान कायम की हैं। जैसे भौगोलिक हदबन्दी, कहा जाता है: यह यूरोप है, यह एशिया, यह अरब है, यह हिन्दुस्तान आदि। मजहबी पहचान, जैसे मुसलमान, ईसाई, हिन्दू, सिख, इत्यादि। राष्ट्र पर आधारित शिनाख्त जैसे अंग्रेज, इटालियन, भारतीय (हिन्दी), वगैरह। इसी तरह, भाषाई और नस्लीय अंतर लोगों को अलग-अलग खानों में बांटते हैं। ये सीमाएं सामाजिक और सांस्कृतिक पहचान कराने वाले के तौर पर कई बार स्वाभाविक और जरूरी होती हैं जैसा कि पवित्र कुरआन इसे लेतारफू (तार्रुफ, यानि आपस की पहचान का जरिया) कहता है। जब तक ये सीमाएं सकारात्मक दायरे में रहती हैं, हमारे लिए एक बड़ा सहारा बनती हैं। लेकिन जब राजनीतिक कारणों और विनाशकारी उद्देश्यों के लिए इनका दुरुपयोग किया जाता है, ये लोगों के लिए अनर्थकारी हो जाया करती हैं।

तब मौलाना आजाद ने धर्म की भूमिका पर भी बात की। उन्होंने कहा, महान धर्मों का उद्भव सुधार तथा दुनिया की बेहतरी के लिए हुआ। शांति, सद्भाव, सहिष्णुता और न्याय को सभी धर्मों में आदर्श के तौर पर माना गया है। इसके बाद भी इतिहास धर्म और ईश्वर के नाम पर खून-खराबे, जाति-संहार, नरसंहार तथा तमाम तरह के अत्याचारों का गवाह बना। गर्व और अहंकार के मिथ्या बोध ने समय-समय पर राष्ट्रों, जातियों और सभ्यताओं का नाश किया है। ऐसे संघर्ष-काल में अचानक कोई महान विभूति सामने आकर स्थापित विमर्श और संकीर्ण विश्वमत को चुनौती देती है। धार्मिक कट्टरता या राष्ट्रवाद द्वारा खड़े किए गए अवरोध ऐसे मसीहा को संकीर्णता से ऊपर ऊठकर समाज की बेड़ियों को तोड़ने से नहीं रोक सकते। वह इन तमाम हदूद से बहुत ऊँचे और बुलंद होते हैं। 

जब मौलाना आजाद यह भाषण दे रहे थे, जवाहरलाल नेहरू उनकी बगल में बैठे थे। गांधीजी के साथ 28 साल के अपने लंबे साथ को याद करते हुए वह भावुक भी हो रहे थे। उन्होंने 1920 की जनवरी में दिल्ली में हकीम अजमल खान के घर पर गांधीजी से हुई अपनी पहली मुलाकात का भी जिक्र किया। गांधीजी के साथ रिश्तों पर आजाद ने कहा, यह दिन हम पर ऐसे गुजरे हैं कि मानो हम एक ही छत के नीचे रहे। मौलाना आजाद ने गांधीजी के साथ मतभेदों और असहमतियों की भी बात की। महात्मा गांधी इस बात के सख्त खिलाफ थे कि भारतीय द्वितीय विश्व युद्ध में अंग्रेजों की ओर से लड़ाई में भागीदारी करें जबकि कांग्रेस कार्यसमिति ने निर्णय किया कि अगर अंग्रेज युद्ध के बाद भारत को आजाद करने पर रजामंद हो जाएं तो भारत युद्ध में भाग ले सकता है। गांधीजी ने स्पष्ट किया था कि युद्ध और खून-खराबे की छाया में मिली आजादी उन्हें स्वीकार नहीं। जब मौलाना आजाद और पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कांग्रेस कार्यसमिति के प्रस्ताव का मसौदा तैयार करने के अनुरोध के साथ गांधीजी से संपर्क किया तो कांग्रेस कार्यसमिति के बहुमत से असहमति रखने के बावजूद वह सहर्ष तैयार हो गए। गांधीजी ने इस मसौदे को अकेले तैयार किया और यह इस बात का प्रमाण है कि तमाम असहमतियों के बावजूद सौहार्द्रपूर्ण तरीके से मिल-जुलकर काम करने की उनमें अद्भुत क्षमता थी।

मौलाना ने कहा कि कई मौकों पर गंभीर मतभेदों के बावजूद उनके दिल एक पल के लिए भी दूर नहीं हुए। इस पूरी जिंदगी में कोई ऐसा वक्त नहीं आया कि हमारे दिलों का रुख फिर गया हो। उन्होंने कहा कि सच तो यह है कि हम उनकी महानता के मोह-पाश में ऐसे बंधे थे कि कभी अलग हो ही नहीं सकते थे। मौलाना आजाद ने उस संबोधन में बड़ी बेबाकी से स्वीकार किया था कि वह खुद बड़े दृढ़ सोच वाले इंसान थे। वह आसानी से किसी के प्रभाव में नहीं आते थे। तब तक किसी विचार को स्वीकार नहीं करते जब तक वह तार्किक और बौद्धिक रूप से कायल न हो जाएं और वह विचार हर दृष्टि से उनके दिलो-दिमाग को वश में न कर ले। इसलिए जब पहली बार गांधीजी से मिले तो वह विश्वास या भक्ति से अंधे नहीं थे। लेकिन बाद के वर्षों में गांधीजी के साथ घनिष्ठता के दौरान उन्हें महात्मा के गुणों ने अभिभूत कर दिया और उन्हें गांधीजी को स्वीकार करने के लिए मजबूर होना पड़ा।

मौलाना आजाद और पंडित नेहरू, दो ऐसे शख्स थे जिन्हें गांधीजी को नजदीक से जानने का मौका मिला और दोनों ने यही पाया कि गांधीजी का जीवन एक खुली किताब की तरह था, जिसका हर पन्ना जाहिर था और उसमें हर पंक्ति, हर शब्द और हर अक्षर अपनी चमक बिखेर रहा था। उन दोनों की जानकारी में गांधीजी अकेले ऐसे नेता थे जिसका जीवन इतना पारदर्शी था, कहीं कोई रहस्य नहीं। उनके सार्वजनिक व्यक्तित्व की तरह ही उनका निजी जीवन भी था। उन्होंने निजी और राजनीतिक लालसाओं पर विजय प्राप्त की, धार्मिक और पंथिक बाध्यताओं से खुद को ऊपर उठाया। वह प्रचलित विचारधाराओं और मान्यताओं के दबाव में नहीं आए, वह लोभ-ईर्ष्या सबसे ऊपर थे। मौलाना ने अपने संबोधन में जोर देकर कहा, महात्माजी निस्संदेह हिंदू थे। लेकिन उनका हिंदू धर्म संकीर्ण परिभाषाओं से बंधा नहीं था। यह व्यापक था। उनका हिंदू होना अन्य धर्मों का पालन करने वाले लोगों को गले लगाने और उनका सम्मान करने के रास्ते में नहीं आया।

प्राचीन भारत में, यूनानियों को ब्राह्मण के समान माना जाता था, क्योंकि यूनान ज्ञान और वैज्ञानिक सोच में काफी उन्नत माना जाता था। मौलाना ने कहा, लेकिन दूसरी जगह यह है कि हिन्दू दिमाग गिरने लगा। छूत-छात और तंग दिमाग पैदा हो गया। तब ही से हिन्दू धर्म अपनी बुलंद सतह से गिर गया। मौलाना कहते हैं, लेकिन गांधीजी ने ऊंचे आदर्श स्थापित किए। उनका धर्म समावेशी और सार्वभौम था जिसमें कर्मकांड के बंधनों की जकड़न नहीं थी, यह मानवीयता को समेटे हुए थी। आजाद ने अपना संबोधन इस बात पर जोर देते हुए खत्म किया कि गांधीजी की याद में बना कोई भी स्मारक तब तक अधूरा रहेगा जब तक वह महात्मा के लक्ष्यों और जीवन के प्रति उनके समावेशी दर्शन की महानता को प्रतिबिंबित नहीं कर पाता। उनके अनूभूत सत्य हमारे जीवन में वैसे ही प्रकाश फैला सकते हैं जैसे सूरज अपनी रोशनी से पूरी सृष्टि के लिए करता है, पूरी मानवता के लिए करता है और जिसमें ऊंच-नीच, छोटे-बड़े का कोई आग्रह नहीं होता। मौलाना के मुताबिक, आप कितनी ही यादगारें बना लें, लेकिन वह बेकार हैं, जब तक कि उनकी उंगली उस आलमगीर सच्चाई की तरफ न उठे जो गांधीजी के पेशे-नजर थी। 


(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास पढ़ाते हैं। यह आलेख मौलाना अबुल कलाम आजाद के भाषण संकलन खुतबात-ए-आजाद, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली, पर आधारित है।)  

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