जाफ़र ज़टल्ली और मुग़लकालीन साहित्य एवं लिंग का इतिहास
रज़ीउद्दीन अक़ील
बादशाही है बहादुर शाह की
बन-बनाकर गंड मरौवा खेलिए
मीर मोहम्मद जाफ़र ज़टल्ली ने सत्रहवीं सदी के उत्तरार्द्ध और अठारहवीं सदी के पहले दशक में रेख़ता या शुरुआती उर्दू में अपनी शायरी का डंका बजाया. उर्दू के अक्सर आधुनिक विद्वानों द्वारा ज़टल्ली और उनकी कुल्लियात को कथित अश्लीलता के लिए ख़ारिज या अनदेखा किया जाता रहा है. फिर भी, साहित्य में अनुमेय मानी जाने वाली सीमाओं को पुनः परिभाषित करने का प्रयास करने के लिए ज़टल्ली को पहले प्रमुख उर्दू साहित्यकार होने का गौरव प्राप्त है. हरियाणा के नारनौल के एक सैय्यद परिवार से ताल्लुक़ रखने वाले जाफ़र ज़टल्ली ने नैतिकता के मुद्दों को संबोधित किया, विशेष रूप से मुग़ल कुलीन वर्ग में, जिनमें राजकुमार और मनसबदार शामिल थे. उनके लेखन को अक्सर महज़ लफ़्फ़ाज़ी, फ़हश (वलगर), या घटिया दर्जे की शायराना कोशिश के रूप में अनदेखा किया जाता है. शायर ने ख़ुद को बेकार की बात करने वाले के रूप में पेश किया, जैसा कि हम उनके क़लमी नाम या तख़ल्लुस, ज़टल्ली, से समझ सकते हैं. फिर भी, उर्दू भाषा और साहित्य का कोई भी इतिहासकार ज़टल्ली और उनके काम के महत्त्व को सिरे से नकार नहीं सकता.
यद्यपि उर्दू का परिपक्व आकार अठारहवीं शताब्दी की शुरुआत में मुग़ल पतन की अवधि के दौरान निखर कर सामने आया, जाफ़र ज़टल्ली की उर्दू गद्य और कविताएं इस भाषा में साहित्यिक परंपरा के दिलचस्प शुरुआती उदाहरणों के रूप में काम करती हैं. ज़टल्ली ने इस काम को काफ़ी मज़ेदार ढंग से निष्पादित किया. शायर ने भारतीय देशज और सांस्कृतिक शब्दों, वाक्यांशों और कहावतों की एक बड़ी शब्दावली को फ़ारसी के साथ बड़ी सहजता से मिलाकर भाषा और संस्कृति की बाधाओं को पार किया, जो आगे चलकर उर्दू भाषा और साहित्य का बुनयादी फ़ीचर बना. अर्थात, फ़ारसी आमेज़ उर्दू एक ठेठ भारतीय भाषा बनकर उभरी जिसमें भारत की मिली जुली संस्कृति के ताने-बाने बड़ी ख़ूबसूरती से एक दूसरे से बंधे होते हैं. मुग़ल कालीन छावनियों और बाज़ारों से निकलकर उर्दू एक समृद्ध साहित्य या नज़ाकत से भरी अदब का रूप अख़्तियार कर लेती है.
औरंगज़ेब (१६५८-१७०७) के शासनकाल के उत्तरार्ध में, जाफ़र ज़टल्ली ने कई प्रकार की साहित्यिक विधाओं में रचित अपनी शायरी और दूसरी लेखनी को अपनी कुल्लियात (एकत्रित कार्य), "ज़टलनामा", में संकलित किया. संभव है कि ज़टल्ली के काम को बाद में स्वयं उनके द्वारा या बाद के किन्हीं अन्य कवियों और लेखकों द्वारा संपादित और अपडेट किया गया हो. यह भी मुमकिन है कि दूसरे लोगों की फ़हश रचनाओं को भी ज़टल्ली के नाम से मंसूब कर चलाने की कोशिश की गई हो, इसका मतलब यह भी हुआ कि कवि द्वारा कवर किए गए विषय और साथ ही उनकी भाषा और रूप भी उर्दू पढ़ने वालों को पसंद थे. भले ही ज़्यादा तर पाठक उन रचनाओं को छुप-छुपाकर पढ़ते हों. इसके अलावा, उन्हें अपने समकालीन और निश्चित रूप से बाद के कवियों द्वारा नक़ल किया गया था, जिसमें अठारहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के कई प्रसिद्ध साहित्यकार शामिल थे. हालांकि, कोई भी ज़टल्ली के दर्जे को पार नहीं कर सका होगा. ज़टल्ली ने अरबी, फ़ारसी और हिंदुस्तानी शब्दों के विविध रुपों के सम्मिश्रण से, जमील जालिबी के शब्दों में, "लिसानी खिचड़ी" बनाने का बेमिसाल उदाहरण पेश किया. उनकी रचनाओं में इस तरह के भाषाई प्रयोग के कुछ उदाहरण नीचे दिए गए हैं. मिसाल के तौर पर, औरंगज़ेब के सबसे छोटे पुत्र काम बख़्श और उसकी पाली हुई बकरी, मनोहर, पर कहा गया कटाक्ष भरा यह शेर देखिए:
ज़हे शाहे वाला गोहर काम बख़्श
के ग़च्ची बुज़ कर्द पिच्ची व पख्श
(बहुत ख़ूब, राज कुमारों की सुनहरी शान, काम बख़्श
बकरी के छोटे से सुराख़ को फाड़ कर चिथड़ा बना दिया)
ज़टल्ली ने औरंगज़ेब के बेटे और उत्तराधिकारी, बहादुर शाह (१७०७-१७१२) के शासनकाल पर एक अपमानजनक "गांडू-नामा" भी लिखा:
हुक्म-ए क़ाज़ी, मुहतसिब ज़ायल शुदे
दिल बढ़ाकर गंड मरौवा खेलिए
पीर से और बाप से, उस्ताद से
छुप-छुपाकर गंड मरौवा खेलिए
इसके विपरीत, शक्तिशाली शासक औरंगज़ेब की प्रशंसा में ज़टल्ली ने एक क़सीदा लिखा और उसकी मृत्यु पर शोक-संतप्त मर्सिया। अपनी कविता, "दर तारीफ़े औरंगज़ेब" में ज़टल्ली ने औरंगज़ेब की असाधारण बहादुरी और जंग के मैदान में दृढ़ता का महिमा-मंडन किया है. शायर के अनुसार, मुग़ल शासक ने पूरे दक्कन में खलबली मचा दिया था (ज़हे धाके औरंगशाहे बलि / दर अक़लीमे दक्खन पड़ी खलबली). एक और शेर में औरंगजेब को एक ऐसे योद्धा के रूप में पेश किया, जो युद्ध के मैदान में एक अजेय पर्वत जैसा था (महासुर, जोद्धा, बलि बे-बदल / चू अल-बुर्ज़ क़ायम, चू पर्बत अटल).
इस संदर्भ में, ज़टल्ली ने औरंगज़ेब के बेटों पर भी हमला किया, जिन्होंने उनके अनुसार, न केवल दक्कन अभियान के उचित और कुशल प्रबंधन को ख़राब कर दिया, बल्कि पूरे अभियान को भांड में मिला दिया (हमे कारोबारे पिदर भांड कर्द). विशेष रूप से, शायर ने सेक्स के प्रति उनकी बेलगाम प्रवृत्ति की ओर इशारा किया और लिखा कि गाँड़ और गीली योनि के बारे में बातें करना और उनकी कल्पना जुनून की हद तक पहुँच चुका था (रहे रात दिन गाँड़ के ज़िक्र में / बे-लहू लुअब चूत की फ़िक्र में).
ज़ाहिर है, महिलाएं भी ज़टल्ली के हमलों की ज़द में थीं. ज़टल्ली ने दावा किया है कि समाज में औरतों को नियंत्रित करने वाली तमाम शक्तियों के बावजूद, एक पारंपरिक कहावत के मुताबिक़, पुरुष का लिंग कभी भी स्त्री की योनि को वश में नहीं कर सकता है (सुनी बात मैं पीर फ़रतूत से / के लौड़ा न जीता कभी चूत से). याद रहे कि: विनम्र और भद्र सुहबत ज़बान की शुद्धता पर ज़ोर देती है और आपत्तिजनक भाषा को रोकने के लिए कानों को अपनी उंगलियों से बन्द करने की सलाह भी. समाज के शरीफ़ तबक़ों को संवारने वाली अदब-साहित्य में बेमानी गपशप, झूठ, अपमान और सभी प्रकार के बेलगाम भाषण को घृणित और अपमानजनक माना जाता रहा है. इसी तरह, क्रोध, उतावलापन और तुनक-मिज़ाजी को भी ख़राब व्यवहार की मिसाल समझा गया है. लेकिन ज़टल्ली ने इन सामाजिक आचार-विचार की परवाह नहीं किया.
आख़िरकार, मुग़ल शासक फ़र्रुख़-सियर द्वारा चमड़े के बेल्ट से गला घोंट कर अपने विरोधियों की हत्या करने की आलोचना ने ज़टल्ली का काम तमाम कर दिया। शायर ने फ़र्रुख़-सियर को बादशाहे तसमे-कुश, यानि सम्राट फ़र्रुख़-सियर, जो चमड़े के बेल्ट से गला घोंट कर मारता है, कहकर पुकारा था. संभव है कि शासक ने ज़टल्ली को इसलिए नहीं मरवाया होगा कि उसने तसमे-कुश कहकर निंदा किया था, बल्कि इसलिए कि शायर ने मुग़ल सम्राट के अन्यायपूर्ण शासन का मज़ाक उड़ाया था, बावजूद इसके कि अभी वह सिंहासन पर बैठा ही था (१७१३-१९). ज़टल्ली के एक शुरुआती जीवनीकार के अनुसार, बादशाह के आदेश पर शायर का गला दबा कर मार दिया गया (मिज़ाजे पादशाह बरहम गश्त, इशान रा बे-जन्नत फ़रस्ताद, यानि बादशाह का मिज़ाज भड़क उठा, और शायर को स्वर्ग भेज दिया गया)!
ज़टल्ली की मृत्यु का वर्ष (१७१३), ख़ुद शायर के एक शेर के कुछ हिस्सों को मिलाकर निकाला गया है:
‘हवेली' छोड़, यू बोला ज़टल्ली
'अंधेरी गोर में लटकन लगे पाग'
अपने ख़ास अंदाज़ में ज़टल्ली ने अपना परिचय कुछ इस तरह देना पसंद किया: 'लल्लू पट्टू, वलद इन्धन जंगली, मुतावत्तिन अंधेर नगरी, मुलाज़िम-ए सरकार-ए चौपटाबाद' (एक घृणित चाटुकार और जंगली जानवर की औलाद, अंधेर नगरी का निवासी और चौपटाबाद के शासक का मुलाज़िम). देखिए, शाहजहानाबाद-दिल्ली शहर की बिगड़ती भव्यता को चौपटाबाद की संज्ञा देना एक शक्तिशाली रूपक है.
मुग़ल सिंहासन के लिए औरंगज़ेब के पुत्रों के बीच हुए भयानक संघर्षों के चश्मदीद गवाह के रुप में और राजनीतिक संकट के कारण उत्पन्न चिंताओं को प्रकट करते हुए, ज़टल्ली ने बदले हुए परिदृश्य में अपनी टिप्पणी के परिणामों के बारे में ख़ुद को चेतावनी देते हुए कहा है कि जाफ़र अब ज़माना बदल गया है, अपनी ज़बान को क़ाबू में रखो:
बया, जाफ़र, सुख़न रा मुख़तसर कुन
ज़े दौर-ए मुख़्तलिफ़ दर दिल हज़ार कुन
[सन्दर्भ-ग्रन्थ: ज़टलनामा (कुल्लियात-ए जाफ़र ज़टल्ली), उर्दू साहित्यिक क्लासिक्स के सबसे कुशल संपादकों में से एक, रशीद हसन खान द्वारा संपादित और अंजुमन तरक़्क़ी उर्दू (हिंद) द्वारा २००३ में प्रकाशित].
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