मध्यकालीन और शुरुआती आधुनिक भारत की सांस्कृतिक गतिशीलता
रज़ीउद्दीन अक़ील
इस लेख में हमारा उद्देश्य मध्ययुगीन और प्रारंभिक आधुनिक भारत की सांस्कृतिक गतिशीलता, विभिन्न सांस्कृतिक प्रथाओं, बौद्धिक परंपराओं, एवं धार्मिक प्रतिद्वंदिता के साथ-साथ राजनीतिक संरक्षण और दुरुपयोग के सवालों को कवर करना है. यह सब मिलकर हमारी सांस्कृतिक विरासत का निर्माण करते हैं जो पिछली शताब्दियों से होकर हम तक पहुँची हैं और जिन्हें बहुलतावादी विविधता को बनाए रखने के लिए संरक्षित किया जा सकता है. इसके बरअक्स, निर्मित विरासत (ऐतिहासिक स्मारकों, वास्तुकला, आदि) सहित इन सांस्कृतिक धरोहरों को एक ऐसे समाज के निर्माण के लिए ध्वस्त भी किया जा सकता है जो अपने ही अतीत से अनभिज्ञ है. राजनीतिक पीड़ा से ग्रसित ऐसे समाज के ताने-बाने अंततः छिन्न-भिन्न होकर अपने समय और स्थान की सांस्कृतिक दरिद्रता और खोखलेपन का परिचायक बनते हैं. वहीं दूसरी ओर, ऐतिहासिक ज्ञान से लबरेज़ बौद्धिक चेतना एक ऐसे समाज को संवारती है जहाँ घरों और संस्थानों के दरवाज़े और खिड़कियाँ सांस्कृतिक चिन्ह्कों की आवाजाही के लिए खुले हुए होते हैं, और लोग बंद बक्सों में छुपे चूहे बनकर नहीं रह जाते.
अतः हम यहाँ विशेष रूप से पूर्व-आधुनिक भारत के सांस्कृतिक इतिहास की समझ के लिए कुछ महत्वपूर्ण विषयों और मुद्दों पर प्रकाश डालेंगे:
१. धार्मिक आन्दोलनों का ग़ैर-धार्मिक मूल्यांकन - मध्ययुगीन और प्रारंभिक आधुनिक सूफ़ी-भक्ति प्रतिवेश के अन्तर्सम्बन्धों ने एक दूसरे के धार्मिक विश्वासों और प्रथाओं के शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व और सहिष्णुता का उपदेश दिया, जो हमें विरासत में मिली अद्भुत विविधता का परिचायक है. इस सन्दर्भ में मोईनुद्दीन चिश्ती, बाबा फ़रीद, निज़ामुद्दीन औलिया, कबीर और बाबा नानक जैसे सूफ़ी, संत और गुरु का नाम बार-बार आता है. वह समाज की अनेकता में एकता की हमारी संस्कृति के बड़े अलमबरदार रहे हैं. एक ईश्वर की याद में ग़र्क़ होकर, लोगों को जोड़ना उनका मक़सदे हयात था. धार्मिक और सांस्कृतिक प्रक्रियाओं को समझने के लिए, हमें आक्रामक सांप्रदायिकता, जटिल पहचान-गठन, धर्मान्तरण के झगड़ालू प्रश्न और राजनीतिक शक्ति के दुरूपयोग के सामयिक प्रयासों के मामलों का भी ध्यान रखना होगा. कम ही इतिहासकार इन ज्वलंत मुद्दों के साथ इंसाफ़ कर पाते हैं.
२. साहित्यिक परंपराएँ - हाल के वर्षों में, कुछ निपुण इतिहासकारों ने कई भाषाओं में विभिन्न प्रकार के साहित्य का उनके अलग-अलग सन्दर्भों में सर्वेक्षण किया है. इनमें शास्त्रीय (क्लासिकल) भाषाओं के साथ-साथ क्षेत्रीय-देशी (वर्नाक्यूलर) भाषाई साहित्य की एक पूरी श्रृंखला शामिल है, हालांकि कई मामलों में शास्त्रीयता और देशजता के बीच की सीमाएं टूटती हुई नज़र आती हैं और उनके प्रारूपों और शैलियों के बीच मज़ेदार बॉर्डर-क्रॉसिंग्स देखने को मिलती हैं. साथ ही, वह दिलचस्प तरीक़े भी प्रकट हुए हैं जिनमें साहित्यिक कृतियों का सृजन किया गया और किस तरह लेखकों और पाठक-वर्गों ने अंतर-ग्रंथीय उद्धरण का सहारा लिया (यानि विभिन्न परम्पराओं को अपने अंदर निरंतर समेटते हुए वक़्त के साथ चलते रहे). इस तरह नए शोध ने यह संकेत भी दिया है कि भारत की विशाल साहित्यिक परंपराओं की अधिक फलदायी समझ के लिए उभरती हुई नई साहित्यिक-इतिहास को कौन से रुख़ अख़्तियार करना चाहिए, ख़ासकर यह समझने के लिए कि अतीत की रंगरंगी ने वर्तमान को किस तरह सँवारा है.
३. संगीत और नृत्य के विभिन्न रूप - मध्यकाल और उससे पहले से कविता, संगीत और नृत्य के व्यापक क्षेत्रों में भी विकसित विशेषज्ञता और उत्कृष्टता देखने को मिलती हैं. संगीत को इस्लाम में मना किए जाने के मिथक के कारण कुछ लोग ग़लत धारणा में फंसते रहे हैं, जबकि इसके विपरीत, सिद्धांत और व्यवहार दोनों में, संगीत के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान और प्रचलन के ढेरों प्रमाण मिलते हैं. सूफ़ियों की ख़ानक़ाहों और दरगाहों के अलावा, शाही दरबारों ने कला के नाना प्रकार के रूपों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. शायर, गायक, संगीतकार और नर्तक अपने कार्यक्रमों में ऐसी समां बांधते रहे हैं, जो जघन्य, वीभत्स और कुत्सित पापियों के अंधकारमय ह्रदय में भी रौशनी का सबब बनते हैं. ग़ज़ल और क़व्वाली के संगीतमय रूप दिलों में दर्द का एहसास कराकर इंसान को अच्छा इंसान बनने में सहायक होते हैं. यहाँ अच्छे इंसान से मुराद दूसरे जीव, मनुष्य, जानवर या पेड़-पौधों से भी मुहब्बत या आदर का भाव पैदा कर सबसे अच्छा सलूक करना है. प्रेम की भावना से शराबोर सूफ़ियों के नज़दीक भगवान की प्राप्ति का रास्ता भी यही है.
४. दृश्य संस्कृतियां - मध्यकालीन शासकों ने विशेषकर वास्तुकला और चित्रों के माध्यम से अपनी शक्ति और संप्रभुता की भव्यता को व्यक्त किया है. बड़े-बड़े क़िले, महल, शहरी दरवाज़ों और उपासना-स्थलों के अतिरिक्त, ताजमहल और हुमायूँ के मक़बरे की भव्य ईमारतें और अनगिनत मीनार, गुँबद, ताक़ और खिड़कियों में नक़्क़ाशी व पत्थर पर खोदे गए क़ुरानी आयात की ख़ूबसूरती कुल मिलाकर एक समृद्ध संस्कृति के द्योतक हैं, जिनकी अक्कासी चित्रकला में भी देखने को मिलती है. इस ख़ूबसूरत विरासत को समझने और उनके संरक्षण का काम कला के क्षेत्र के माहिर इतिहासकार, वास्तुकार, और दूसरे विद्वान एवं विशेषज्ञ बख़ूबी निभा रहे हैं.
५. पर्व-त्योहार और जीवन की छोटी-मोटी ख़ुशियाँ - नई स्रोत सामग्री की एक पूरी श्रृंखला के साथ काम करते हुए इतिहासकारों द्वारा भोजन की आदतों, खपत, बाज़ार, मेला, पर्व, त्योहार, लिंग और शारीरिक प्रथाओं का नया और दिलचस्प इतिहास लिखा जा रहा है. जाफ़र ज़टल्ली और नज़ीर अकबराबादी जैसे कवियों की साहित्यिक कृतियाँ, जो मैंने स्वयं देखी हैं, हमें लिंग से संबंधित प्रश्नों को समझने में मदद कर सकती हैं. इसके अलावा सत्ता को सच का आईना दिखाने और राजनीति और संस्कृति के बहुमुखी मुहावरों का जश्न मनाने के लिए भी साहित्यक स्रोत बहुमूल्य हैं. जाफ़र ज़टल्ली सरीख़े दिग्गज और बेबाक शायर ने तो औरंगज़ेब के नालायक़ बेटों की काली करतूतों का खुल्लम-खुल्ला मज़ाक़ उड़ाकर उनकी ऐसी की तैसी कर दी थी. सत्ता की शह पर गाली-गलौज करने वाले आज के भक्तों को भी यह सुनकर आश्चर्य होगा कि ज़टल्ली अपने समय के सत्ताधारी लोगों पर ऐसी कटाक्ष करने की क्षमता रखता था:
बादशाही है बहादुर शाह की
मिल-मिलाकर गंड मरौवा खेलिए
इसके अतिरिक्त, मेरे नज़दीक उर्दू शायरी की रेख़ती परंपरा में सामाजिक और पारिवारिक रिश्तों में बेईमानी-शैतानी को उजागर करना बहुत महत्वपूर्ण है, ख़ासकर पितृसत्तात्मक माहौल में परिवार की बहु पर होने वाले ज़ुल्म के दर्द को इस तरह उजागर करना:
ससुराल में जो पादूँ तो मायके में हो ख़बर
एक इश्तहार नन्द है, एक इश्तहार सास
(उपरोक्त शेर मैंने उर्दू के प्रतिष्ठित विद्वान सी.एम. नईम की किताब "उर्दू टेक्स्ट्स इन कॉन्टेक्ट्स" से उद्धरित किया है).
6. राजनीतिक संरक्षण - पूर्व-औपनिवेशिक भारत ने अकबर जैसे सम्राटों द्वारा अपनाई गई राजनीतिक विचारों, सिद्धांतों और प्रथाओं के एक समावेशी ढांचे को व्यापक रूप से देखा। इसके विपरीत, औरंगज़ेब जैसे शासकों ने संकीर्ण संप्रदायवादी विचारधाराओं को आकर्षित किया, विशेष रूप से सुन्नी इस्लाम के नाम पर अपने कुछ अपमानजनक राजनीतिक तिकड़म को वैध बनाने के लिए.
इस संदर्भ में, पूजा स्थलों के तोड़फोड़ का महत्वपूर्ण प्रश्न भी ध्यान में आता है, जिसे क़ालीन के नीचे दबाकर नहीं रखा जा सकता, और न ही संकीर्ण राजनीतिक लाभ के लिए आज उनका दुरुपयोग जायज़ है. हम अतीत से सबक़ हासिल कर सकते हैं; लेकिन ऐतिहासिक ग़लतियों, चाहे वह वास्तविक हों या राजनीतिक प्रोपेगंडे से प्रेरित मनगढ़ंत अफ़वाह, का बदला लेने का प्रयास, सत्ता के लोभ में सामाजिक ढांचों और सांस्कृतिक संबंधों के विध्वंस का पर्यायवाची है.
निष्कर्षतः, ऐतिहासिक रूप से, सांस्कृतिक विविधता हमारे राष्ट्रीय और सभ्यतागत चरित्र का प्रतीक है. दूसरी ओर, सांप्रदायिकता और कट्टरवाद की विनाशकारी खींचतान से समाज बुरी तरह आहत होता रहा है. धर्म के नाम पर की जानेवाली राजनीतिक लामबंदी देश और समाज को हर कालखंड में प्रभावित करती रही है, लेकिन इतिहास गवाह है कि इस तरह की ओछी राजनीति यहाँ अंततः पूरी तरह डिसक्रेडिट या कलंकित हो जाती है. क्यूँकि यहाँ के सांस्कृतिक धरोहरों की नींव काफ़ी मज़बूत, समावेशी, और एकीकृत है. रामायण और महाभारत जैसे महाग्रंथों के संस्कृत और देशज भाषाओं में पाए जाने वाले विभिन्न रूपों, आदिग्रन्थ (गुरु ग्रन्थ साहिब) में सम्मिलित संतों और गुरुओं के आध्यात्मिक उपदेश, मलिक मोहम्मद जायसी जैसे सूफ़ी कवियों द्वारा रचित प्रेमाख्यान (पद्मावत), मध्यकालीन इतिहासकारों की संस्कृत, फ़ारसी और देशज भाषाओं में लिखी गयीं ऐतिहासिक कृतियाँ और मुग़ल दौर की अकबरी विचारधारा का बखान करती अकबरनामा और आईन-ए अकबरी के अतिरिक्त विभिन्न काल और क्षेत्रों की साहित्यिक रचनाएँ तथा स्थापत्य एवं चित्रकला की अनगिनत मिसालें भारतीय संस्कृति की एक समेकित रुपरेखा पेश करती हैं. इन सबको मिटाकर देश और समाज को हमेशा के लिए बेवक़ूफ़ नहीं बनाया जा सकता है.
Again very interesting and informative piece of article.
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