इतिहासनामा - सुलतान मोहम्मद बिन तुग़लक़ की त्रासदी

रज़ीउद्दीन अक़ील 

सत्ता में बैठे हुए लोग जब मनमाने ढंग से राजनीतिक और प्रशासनिक सिस्टम या व्यवस्था में बदलाव लाने की कोशिश करते हुए जनमानस को प्रतिकूल रुप से प्रभावित करते हैं, त्रस्त जनता १४वीं शताब्दी के देहली के सुलतान मोहम्मद बिन तुग़लक़ के अपमानजनक और उत्तेजक फ़रमानों और आदेशों को याद करके विचलित हो जाती है. सामान्यतः अलग तरह की बेतुकी सोच को ज़बरदस्ती लागू करने के आधे-अधूरे प्रयास को जिनका कार्यान्वयन असफल हो जाना तय समझा जाता है, तुग़लक़ी फ़रमान की संज्ञा दी जाती है. क्योंकि यही हश्र तुग़लक़ सुलतान की ऐतिहासिक परियोजनाओं का हुआ था. इसके साथ ही यह इक़रार करना भी ज़रुरी है कि सुलतान के मूल विचार पूरी तरह बेकार नहीं थे, फिर भी, कई कारणों से, उनके परिणाम गुड़ गोबर साबित हुए.

अपनी सत्ता के चरम पर, सुलतान मोहम्मद बिन तुग़लक़ ने एक बड़े उपमहाद्वीपीय साम्राज्य की स्थापना की और हर तरफ़ अपनी शक्ति और क्षमता का जलवा दिखाया. मोहम्मद बिन तुग़लक़ का लगभग २६ वर्षों का घटनाओं से परिपूर्ण शासन, १३२५-१३५१, यह महत्वपूर्ण अंतर्दृष्टि प्रदान करता है कि कैसे कुछ अच्छे विचारों को भी लागू करने के लिए क्रूर उपायों का अपनाया जाना उन्हें पूरी तरह अस्वीकृत कर देता है. जब लोगों ने सुलतान की निरंकुशता के ख़िलाफ़ विद्रोह किया, तो उसने अपने प्राधिकार के उलंघन करने वालों को सख़्ती से दंडित किया; यह अजब कश्मकश था कि जैसे-जैसे लोगों का आक्रोश बढ़ता गया, सुलतान का रवैया भी उतना ही सख़्त होता गया.

विरोधियों द्वारा पागल और क्रूर शैतान कहलाने वाले तुग़लक़ सुलतान के ख़िलाफ़ लगाए गए आरोपों में शामिल है:

(१) सर्व ज्ञानी सुलतान किसी की नहीं सुनता था, यहाँ तक कि अच्छी नियत से दिए गए नेक सलाह को भी उसने स्वीकार नहीं किया;

(२) सुलतान उन लोगों की भी आलोचना नहीं सह सकता था, जो उनके विरोधी नहीं थे;

(३) सुलतान किसी भी तरह के विरोध बर्दाश्त नहीं करता था और अपने विरोधियों को दबाने और कुचलने के लिए नाना प्रकार के अनोखे तरीक़े अपनाता;

(४) सत्ता के लोभ में उसने अपने बाप तक को आसानी से मरवा दिया, हालांकि कोई जज इस इलज़ाम को साबित नहीं कर सकता था, न ही कोई उसे प्रत्यक्ष रुप से दोषी ठहरा सकता था;

(५) अपनी असीमित महत्वाकांक्षा के कारण सुलतान ने कई बड़ी परियोजनाओं को उचित सोच विचार के बग़ैर और जल्दी में लागू करने का असफल प्रयास किया; शायद सुलतान अपने वक़्त से आगे चल रहा था और इसके साथ ही वह एक शक्तिशाली विश्व-विजेता के रुप में उभरने की कोशिश कर रहा था.

पूरे हिन्दुस्तान में अपनी बादशाहत का लोहा मनवाने के बाद, तुग़लक़ सुलतान भारत और चीन के बीच हिमालय के गगनचुंबी पर्वतीय क्षेत्र में अपनी विजय पताका लहराना चाहता था. सुलतान के नज़रिए से देखा जाए तो यह सही दिशा में लिया जाने वाला स्वाभाविक क़दम था. कंधार से आगे जाने और हिमालय की पर्वतीय बाधाओं को पार करके मध्य-एशिया में अपना सिक्का चलाने की कोशिश भारत की भू-रणनीति का हिस्सा रही है. सुलतान की फ़ौज मध्य-एशिया के साथ-साथ ख़ुरासान और ईरान के पूर्वोत्तर में भी विजय प्राप्त करने के लिए अग्रसर हो सकती थी. इस क्षेत्र में सैन्य अभियान के लिए सेना को संगठित करने में सरकारी ख़ज़ाने से भारी रक़म ख़र्च किया गया, लेकिन यह प्रोजेक्ट पूरी तरह टाएं-टाएं फिस साबित हुआ, और सुलतान की सैन्य क्षमता के परसेप्शन, अभिज्ञता या ग्रहणबोध, को गहरा धक्का पहुँचाया. हिमाचल और कश्मीर के अंतर्गत आने वाले क्षत्रों को नियंत्रित करने वाले पर्वतीय राजाओं और प्रमुखों ने देहली की सेना को एक विनाशकारी मृत्यु-जाल में फँसा लिया. लाखों की संख्या में भेजे गए घुड़सवारों में से चंद ही राजधानी लौटकर उनकी सेना के साथ हुए नरसंहार की इबरतनाक ख़बर दे सके.

इस विनाशकारी अभियान के लिए बहुत बड़ा धन दो अन्तर्सम्बन्धित उपायों के माध्यम से एकत्रित किया गया था: भारी और कष्टदायी कर व्यवस्था के कार्यान्वयन और सामान्य सोने और चांदी की बजाय पीतल और तांबे की टोकन मुद्रा की शुरुआत. इस क़दम से मेहनत-कश कृषक वर्ग और अपने एक-एक कौड़ी गिनने वाले सतर्क व्यापारी दोनों बुरी तरह प्रभावित हुए. कुछ वर्षों के लगातार ख़राब मानसून ने संकट में और बढ़ोतरी की. अकाल की उग्रता और भोजन और चारे की कमी से सर्वत्र भुखमरी और महामारी का प्रकोप फैल गया. बड़ी मात्रा में तांबे के नक़ली सिक्कों के गढ़े जाने और उनके परिसंचरण ने भी व्यापार और वाणिज्य पर प्रतिकूल प्रभाव डाला. अर्थव्यवस्था के कुप्रबंध और दुर्दशा का अंदाज़ा इस मज़ाक से लगाया जा सकता है कि भ्रष्ट लोगों ने घर-घर में नक़ली सिक्कों की टकसाल खोल रखा था. वहीं यह इलज़ाम भी लगाया गया कि टोकन मुद्रा के पीछे की मंशा शासक द्वारा लोगों की गाढ़ी कमाई से जमा किए गए सोने और चांदी को हड़पना था. कहा गया कि सुलतान सोने का भूखा था. 

आख़िर, कमज़ोर अर्थव्यवस्था की वास्तविकता से जागृत हो कर और हर तरफ़ मची हुई त्राहि को देखकर, शासक ने बदहाल किसानों को ऋण और सब्सिडी की पेशकश की. फ़ारसी में इसके लिए एक अच्छे लफ़्ज़ का इस्तेमाल किया गया - तक़ावी, यानि तक़वियत या राहत पहुँचाने वाला. और यह भी घोषणा की गई कि तांबे के सिक्के, चाहे वह खोटे हों या खांटी, सोने और चांदी के सिक्कों से बदले जा सकते हैं, लेकिन तब तक बहुत अधिक नुक़सान हो चुका था. यद्यपि, हमेशा की तरह, पड़ोसी मुल्क चीन सड़कों और समुंद्री रास्तों से अपने नवरचनात्मक कौशल और उद्यम द्वारा आर्थिक विकास के नए उपायों को दुनिया के सामने ला रहा था, हिन्दुस्तान में पेपर मुद्रा और प्लास्टिक कार्ड का समय अभी तक नहीं आया था. इस तरह मोहम्मद बिन तुग़लक़ टोकन करेंसी लागु करने की अपनी कोशिश में नाकाम रहा.

इन योजनाओं की विफलता ने हर तरफ़ व्यापक अशांति को जन्म दिया. कुछ हद तक उपेक्षित दक्षिण भारत पर विशेष ध्यान दिए जाने की ज़रुरत महसूस हुई. सुलतान के विचार में इसे देवगिरी के नामित क़िले से बेहतर तरीक़े से नियंत्रण में रखा जा सकता था. इसलिए उसका नाम बदल कर दौलताबाद रखा गया और उसे नई राजधानी के रुप में घोषित किया गया. इसके साथ ही एक और नए तमाशे का आग़ाज़ हुआ. दिल्ली की सत्ता से जुड़े अभिजात वर्ग को स्थान्तरित किए जाने का आदेश जारी हुआ, जिससे प्रभावित लोगों को बहुत चिंता और कठिनाई हुई. बहुत सारे लोगों को ज़बरदस्ती शहर छोड़ने को मजबूर किया गया. एक रिपोर्ट के मुताबिक़ पूरे दिल्ली शहर में एक ही घर बचा था, जहाँ रातों को चिराग़ जलता रहा था, और वह घर चिश्ती सिलसिले में निज़ामुद्दीन औलिया के उत्तराधिकारी नसीरुद्दीन चिराग़ का था. चिराग़ दिल्ली का लक़ब उसी प्रतिरोध का द्योतक है. इस मामले ने, मोहम्मद बिन तुग़लक़ का सम्बन्ध सूफ़ियों से भी बिगाड़ दिया. याद रहे कि तुग़लक़ सुलतान को सलतनत की बशारत और उसकी सत्ता की वैधता निज़ामुद्दीन औलिया से प्राप्त हुई थी. 

इरादे के पक्के और ज़िद्दी सुलतान ने इसके परिणाम को स्वीकार कर झुकने के बजाय, अपनी परियोजना की गंभीरता साबित करने के लिए अपनी माँ का इस्तेमाल किया ताकि वह दौलताबाद की कठिन यात्रा पूरी कर एक मिसाल पेश करें. हालांकि, अन्य योजनाओं की तरह, यह भी काम नहीं आया. इस तरह, ख़ुरासान और क़राचील अभियान की नाकामी, प्राकृतिक आपदा और आकाल, टैक्स तंत्र की सख़्ती, मुद्रा व्यवस्था की बरबादी और दक्षिण भारत पर अपनी पकड़ मज़बूत करने के लिए दौलताबाद को वैकल्पिक राजधानी बनाने में शक्ति के दुरुपयोग आदि ने कुल मिलाकर सुलतान की मिट्टी पलीद कर दिया था.

दिल्ली की शक्ति काफी कम होती चली गई और निरंकुश शासक दक्षिण भारत के एक बड़े हिस्से पर अपना नियंत्रण क़ायम नहीं रख सका. जल्द ही, तेज़ी से उभरते हुए विजयनगर साम्राज्य और बहमनी सलतनत ने दक्षिण भारत और दकन के विशाल कन्नड़, तेलुगु और मराठी भाषी क्षेत्रों को अपने क़ब्ज़े में ले लिया. अपने शासन के अंत तक, सुल्तान को महाराष्ट्र और गुजरात - जो उसके अंतिम गढ़ थे - में भी विद्रोह से दो चार होना पड़ा. इस बीच, बंगाल अपना एक अलग रास्ता अख़्तियार कर चुका था.

इन सब विपदाओं के बीच, सुलतान ने मिस्र में विराजमान ख़लीफ़ा से प्रशंसापत्र मंगवाने के अलावा धार्मिक नेताओं, दार्शनिकों, विदेशी गणमान्य व्यक्तियों और सलतनत की राजनीति में हाशिए पर के लोगों को न सिर्फ शांत करना जारी रखा, बल्कि उन्हें उचित आदर से नवाज़ते हुए दोस्ती का हाथ बढ़ाया. लेकिन यह आख़िरी पहलु भी दिल्ली की सत्ता में पैठ बनाए बैठे लोगों के विरोध का मुद्दा बना. नए लोगों को दिल्ली के सिस्टम में जगह देकर स्थापित करना आसान काम नहीं होता.

हर तरफ़ फैले मायूसी के आलम को देखकर, निराश, नाराज़ और घृणित सुलतान ने अपनी गद्दी छोड़ने और तीर्थ-यात्रा पर चले जाने पर विचार किया, लेकिन वह आसानी से हार मानने वाला भी नहीं था. उसने फिर वही कठोर रवैया अपनाना शुरु किया जिसके लिए लोग उससे डरते थे. जैसा कि मध्ययुगीन राजनीतिक सिद्धांत में भी कहा गया है, निरंकुश शासक के प्रति अवज्ञा को ईश्वर के अधिकार की अवहेलना के रुप में व्याख्यायित किया गया और जिसके लिए गंभीर सज़ा का प्रावधान था. सुलतान धरती पर भगवान का अवतार या परछाईं समझा जाता था, और लाज़िम था कि वह ईश्वर के दो-रुख़ी गुणों को अपने व्यवहार में लाता. एक तरफ़ रहमो करम करने वाला और दूसरी ओर सख़्त से सख़्ततर दंड देने वाला. सुलतान की ज़िम्मेदारी ज़मीन पर ख़ुदा की सार्वभौमिकता को स्थापित करना थी, ताकि न्याय पर आधारित सामाजिक बराबरी के निज़ाम को क़ायम रखा जा सके.

इसके बरअक्स, सुलतान ने नीति और शासन पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय, अपने विरोधियों को अत्यधिक और बेमिसाल सज़ा देकर अपने वर्चस्व को बनाए रखने पर ज़ोर दिया. इस तरह, हर तरफ़ भय का वातावरण पैदा हुआ. कोई भी उसके प्रकोप से बच नहीं सकता था. मौत के घाट उतारने की साधारण सज़ा से आगे उसके आदेशों में खाल खींचकर भूसा भरवाने और बोटी-बोटी करके मांस का पुलाओ बनाकर हाथियों को परोसने के दंड शामिल थे. घृणित शाकाहारी हाथियों की हुंकार दंडित किए गए लोगों, चाहे उनमें उसके राजद्रोही भाई गुर्शस्प खान क्यों न हों, को दिए गए सज़ा की वैधता की प्रतीक के रुप पेश किया गया.

यहाँ यह बताते चलें कि सुलतान की यह छवि उसके दौर के तीन प्रतिष्ठित लेखकों - ज़ियाउद्दीन बरनी  (तारीख़े फ़िरोज़शाही), इज़्ज़ुद्दीन इसामी (फ़ुतुहुस सलातीन) और इब्ने बतूता (रेहला) - ने इतने मज़बूत तरीक़े से बनाई है कि इसे पूरी तरह नकारना संभव नहीं है. हालांकि यह समझना मुश्किल नहीं है कि यह तीनों सुलतान की निंदा में अपनी-अपनी तरह से मोटिवेटेड या प्रेरित थे, और यह भी कि सुलतान के द्वारा उठाए गए सारे क़दम और उपायों की स्पेसिफिक रेशनलिटी या विशिष्ट तर्कसंगतता थी. सुलतान पागल नहीं था. कोई विक्षिप्त आदमी देश पर २५ साल राज नहीं कर सकता. फिर भी, उन समकालीन लेखकों द्वारा खींचे गए ख़ाके को मिटा नहीं सकना एक बार फिर यह साबित करता है कि: क़लम तलवार पर भारी है! यह बादशाहों को सत्ता में बिठा कर उनका महिमा मंडन भी कर सकता है, और उन्हें पूरी तरह बदनाम करके उनकी सलतनत का शीराज़ा भी बिखेर सकता है.

आख़िरकार, जैसा कि ख़ुद सुलतान मोहम्मद बिन तुग़लक़ के एक विश्वसनीय सलाहकार, बरनी, ने उसके शासन की त्रासदी को याद करते हुए लिखा है: व्यापक हिंसा के बीच उसकी मृत्यु से, निर्दयी सुलतान और त्रस्त जनता दोनों को एक-दूसरे से छुटकारा मिल गया.


Comments

  1. Sir, achhi jankari di h aapne, hindi me isi tarah likhte rahiye hamare jaiso ka kalyan hota rahega.

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