इतिहासनामा: उर्दू में तारीख़-निगारी की एक झलक
रज़ीउद्दीन अक़ील
आजमगढ़ के माफ़िया डॉन, कट्टर मुल्ला, दबँग सियासतदाँ, इंक़लाबी कवियों और दूसरे बेशुमार जुनूनी लोगों से दुनिया वाक़िफ़ है. लेकिन सय्यद सबाहुद्दीन अब्दुर रहमान को, हालाँकि वह बिहारी थे और बिहारी कम तगड़े नहीं होते, उर्दू दुनिया के बाहर कम ही लोग जानते हैं. आपने अपनी तक़रीबन सारी ज़िन्दगी आजमगढ़ में स्थित दारुल मुसन्नेफ़ीन शिबली अकादमी में रहकर उर्दू में तारीख़-नवीसी की और ख़ास तौर से मध्यकालीन भारत पर दर्जनों किताबें लिखीं. आपसे पहले, २०वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में, शिबली नोमानी और सय्यद सुलैमान नदवी ने उर्दू तारीख़-नवीसी का बड़ा आला मेआर क़ायम किया था, जो उनके वक़्त की अंग्रेज़ी हिस्टोरिओग्राफ़ी से कमतर नहीं था. सय्यद सबाहुद्दीन ने उनके काम को बख़ूबी आगे बढ़ाया.
सय्यद सबाहुद्दीन की पहली तीन किताबें: दिल्ली सलतनत के सूफ़ियों पर, 'बज़्मे सूफ़िया: अहदे तैमूरी से क़ब्ल अकाबिर सूफ़िया' (१९४९) और दिल्ली सलतनत और मुग़ल दौर की भाषाई तारीख़, 'बज़्मे मम्लूकिया' (१९५४) और 'बज़्मे तैमूरिया' (१९४८) के नाम से मशहूर हैं. इनके अलावा, 'हिन्दुस्तान के अहदे-वुस्ता (मध्य-काल) का फ़ौजी निज़ाम' (१९६०), 'हिन्दुस्तान के सलातीन, उलमा और मशायख़ के ताल्लुक़ात पर एक नज़र' (१९६४), 'मुसलमान हुक्मरानों की मज़हबी रवादारी' (तीन भागों में, १९७५-८४) और 'इस्लाम में मज़हबी रवादारी' (१९८७) मध्य-काल में मज़हब की सियासत का अहम विश्लेषण पेश करती हैं. सांस्कृतिक इतिहास की अहमियत पर निम्नलिखित ग्रंथ दिलचस्पी से ख़ाली नहीं हैं: 'हिन्दुस्तान के अहदे वुस्ता की झलक' (१९५८); 'हिन्दुस्तान के मुसलमान हुक्मरानों के अहद के तमद्दुनी जलवे' (१९६३); और 'हिन्दुस्तान की बज़्मे रफ़्ता की सच्ची कहानियाँ' (दो भागों में, १९६८-७४). वतन से मुहब्बत की अक्कासी के लिए देखिए: 'सलातीने देहली के अहद में हिन्दुस्तान से मुहब्बत व शेफ़तगी के जज़्बात' (१९८३); और ऐसी ही कई और किताबों में अहम है, 'हिन्दुस्तान अमीर ख़ुसरौ की नज़र में' (१९६६). इस तरह की दर्जनों किताबों के अतिरिक्त, आपने पाँच भागों में, 'इस्लाम और मुस्तशरिक़ीन' (१९८५-८६) के टाइटल से ढेर सारे निबंधों का एक वृहत संग्रह भी सम्पादित किया है, जो दरअसल इस्लामी दृष्टिकोण से ओरिएंटलिस्ट प्रोपगंडे का जवाब है.
सबाहुद्दीन अब्दुर रहमान की हिन्दुस्तानी क़ौमी-मौलवियाना अंदाज़ में आजमगढ़ में रहकर उर्दू में लिखी गई किताबों को नज़र-अंदाज़ कर दिया जाना कोई मुश्किल काम न था, ख़ास तौर से उस वक़्त जब इतिहासकारों को बड़े शहरों की सरकारी यूनिवर्सिटियों में रहकर सेक्युलरिज़्म का झंडा लहराते हुए अंग्रेज़ी में अपनी बात कहने की ज़रुरत थी. फिर मौलवियों की आवाज़ बड़े शहरों की तंग गलियों तक ही महदूद रहती है, इसके बावजूद कि कुछ मौलवी शायद माक़ूल बात कह रहे हों और यह ज़रुरी भी नहीं है कि उनकी हर बात हर्फ़े आख़िर हो.
आपने फ़रमाया है: 'जब मुसलमान फ़ातेह बन कर उमरा के जिलू में हिन्दुस्तान आए तो अपने साथ हिजाज़ी, सासानी, तुर्किस्तानी, तातारी और ईरानी रिवायात भी लाए, और हिन्दुस्तान में रहकर हिन्दुस्तानी माहौल से भी मुतास्सिर हुए, और उनकी मआशरती, तमद्दुनी और तहज़ीबी ज़िन्दगी में मुख़्तलिफ़ अनासिर की आमेज़िश रही जिस पर उन फ़रमारवाओं की शऊरी और ग़ैर-शऊरी कोशिशों से इस्लामी रंग की ऐसी छाप पड़ी कि वह ग़लत या सही इस्लामी मआशरत व तहज़ीब कहलाने लगी और उसको फ़रोग़ देने में हर मुमकिन कोशिश की गई'.
लेकिन सय्यद सबाहुद्दीन के लिए हसरत का मुक़ाम है कि: 'मुसलमान सलातीन क़ुतुब मीनार, लाल क़िला और ताज महल बनाकर मुसलमानों की सियासी और तमद्दुनी ज़िन्दगी का रोबो-जलाल दिखा चुके थे, इसलिए ज़रुरत इसकी थी कि उलमा व सुलहा अपने दिले बेताब और निगाहे मर्दे मोमिन से मुसलमानों के अख़लाक़ व किरदार के क़ुतुब मीनार और ताज महल बनाकर उनकी तक़दीर बदल देते, लेकिन वह ऐसा न कर सके और जब इसकी कोशिश की तो उस वक़्त बहुत ताख़ीर हो चुकी थी, जिस वक़्त जाँबाज़, सरफ़रोश और कफ़न बरदोश उलमा के पैदा होने की ज़रुरत थी उस वक़्त उनका फ़ुक़दान हो गया था'.
सबाहुद्दीन अब्दुर रहमान ने सेक्युलरिज़्म और हिंदुत्व की लड़ाई से हटकर एक अलग नज़रिया पेश करते हुए यह भी कहा है कि: 'यह हिन्दुस्तान की तारीख़ की अजब सितम-ज़रीफ़ी है कि जिन मुसलमान हुक्मरानों पर मज़हबी ताअस्सुब, हिन्दू-कुशी और मंदिरों के इनहदाम का इलज़ाम लगाया जाता है, वह ज़्यादा तर हिन्दू माँओं के बत्न से थे, आम तौर से मोअर्रेख़ीन (इतिहासकार) इनहदामे मंदिर के सिलसिले में फ़िरोज़ शाह तुग़लक़, सिकंदर लोदी, जहाँगीर, शाहजहाँ और औरंगज़ेब का ज़िक्र करते हैं, अव्वलूज़-ज़िक्र चारों (यहाँ बताए गए शुरु के चार) हुक्मरानों की माँएं हिन्दू थीं, और औरंगज़ेब की माँ तो नहीं लेकिन दादी राजपूत शाहज़ादी थी, और इसीलिए बाज़ हिन्दू अहले नज़र कि राय यह है कि उन मख़लूत (मिश्रित) शादियों से जो नस्लें पैदा हुयीं वह हिन्दुओं के लिए ख़ालिस ख़ून वाले मुसलमानों से ज़्यादा मुख़ालिफ़ और मुतास्सिब साबित हुयीं, और फिर यह तसलीम कर लिया जाए कि औरंगज़ेब के मज़हबी ताअस्सुब की बिना पर शिवाजी पैदा हुआ तो अकबर जैसे रवादार हुकमरान के अहद में राणा प्रताप का वुजूद समझ में नहीं आता, यह दोनों हिन्दुओं के क़ौमी हीरो बन गए हैं जिन को बड़े से बड़ा वतन-परस्त मुसलमान भी अपना क़ौमी हीरो तसलीम करने के लिए तैयार नहीं'.
अपनी किताब, 'मुसलमान हुक्मरानों की मज़हबी रवादारी' के पहले भाग की प्रस्तावना में सबाहुद्दीन अब्दुर रहमान ने क्या ख़ूबसूरती से लिखा है कि: 'ज़ेरे नज़र किताब दिलों को जोड़ने के लिए मुरत्तब की गयी है, इसमें नफ़रत व अदावत के जज़्बात उभारने के बजाय मुहब्बतो यागानगत की ख़ुशगवार लहर दौड़ती नज़र आएगी'.
और इसी किताब के डेडिकेशन (इन्तिसाब या निवेदन) में लेखक के सेंटिमेंट को देखिए: 'हिन्दू-मुस्लिम की यागानगत, मवानसत और जज़्बाती हम-आहंगी के नाम'.
और आख़िर में, आजमगढ़ से प्रकाशित होने वाली इन किताबों की अहमियत का अंदाज़ा भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ. ज़ाकिर हुसैन के अल्फ़ाज़ में मुलाहिज़ा फरमाएँ:
'जबकि हमारे अक्सर मुअर्रिख़ क़रुने-वुस्ता के हिन्दुस्तान को एक बहरे-तूफ़ान चीज़ बनाकर पेश करते थे जिसमें इस्लामी तहज़ीब और हिन्दू तहज़ीब के धारे एक दूसरे से उलझते और टकराते रहते थे, दारुल मुसन्नेफ़ीन के मुअर्रिख़ो ने यह दिखाने की कोशिश की कि उन दोनों का मिलना तसादुम नहीं बल्कि इमतज़ाज, संघर्ष नहीं बल्कि संगम था'.
बदक़िस्मती से आज फिर संघर्ष पर ज़ोर है, जबकि सब जानते हैं कि संगम का अपना मज़ा है. इसकी एक झलक हमने यहाँ उर्दू में इतिहासलेखन की एक ज़िम्मेदार शक्ल में भी देखा है, और हम इन परम्पराओं को सिरे से नकार नहीं सकते.
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