'बाबर का वसीयतनामा': राजनीतिक सिद्धांत और संस्कृति के इतिहास से सीखने योग्य कुछ सबक़
यह लेख प्रोफ़ेसर मुशीरुल हसन को समर्पित है
(For Professor Mushirul Hasan, historian and academic administrator par excellence, 1949-2018)
रज़ीउद्दीन अक़ील
यह हिन्दुस्तान के पवित्र भूगोल की त्रासदी है कि धार्मिक राजनीति की सड़ांध इसे निरंतर महकाती रही है. जब धर्म एवं संस्कृति के नाम पर लोगों को बाँटने वाले लोग सत्ता में बैठ कर भी ग़ैर-ज़िम्मेदाराना रवैया अपनाए रखें और देश की सियासत का दायरा मंदिर-मसजिद तक सीमित हो कर रह जाए तो समझें बेड़ा ग़र्क़ है. चुनावों के इस सीज़न में रामजन्मभूमि फिर से ख़बरों में है और भक्तों को सड़कों पर खुली छूट है. यह काफ़ी नहीं था कि बाबरी मसजिद को ढा दिया गया, मंदिर-मसजिद के नाम पर किए जाने वाले राजनीतिक तांडव अब भी जारी हैं.
लेकिन इतिहास गवाह है कि ऐसे सभी मौक़ों पर जब माहौल पूरी तरह प्रदूषित हो जाता है, धार्मिक ठिकानों, मठों और मंदिरों से निकल कर बाबा, गुरु और संत भी ज़रूरी हस्तक्षेप करते हुए सत्ताधारी लोगों को राजधर्म की दुहाई देते हैं. राजनीति के अंदर से भी न्याय पर आधारित सिद्धांतों और मूल्यों पर ज़ोर दिया जाता है. समाज का पढ़ा लिखा तबक़ा, बुद्धिजीवी वर्ग और इंसाफ़-पसंद लोग भी निकल कर सामने आते हैं और सत्ता में बैठे लोगों को आईना दिखाते हुए उन्हें उनकी ज़िम्मेदारियों का एहसास दिलाते हैं. और ख़ुद जनता-जनार्दन भी लाइन में लगकर उन लोगों को चुनावी धूल चटाती है, जिन्हें पहले सिर पर बिठाया था. राजनीतिक कुकर्मों को धार्मिक वैधता प्रदान कर ज़्यादा दिन राज नहीं किया जा सकता.
बाबरी मसजिद और दूसरे उपासना-स्थलों के नाम पर मुग़लों को बदनाम करने की कोशिश का चुनावी फ़ायदा तो बीच-बीच में मिल ही सकता है, लेकिन जो बात सीखने की है वह यह कि किस तरह मुग़ल शासकों ने कई-कई दशकों तक पूरे भारतवर्ष पर राज्य किया. अकबर और औरंगज़ेब ने तो पचास-पचास साल सत्ता में बैठकर अपने नाम का डंका बजवाया, और यह केवल मार-काट से संभव नहीं था. इसके लिए मुग़ल शासन पद्धति को समझने की ज़रुरत है.
बाबर का वसीयतनामा एक ऐसी शासन प्रणाली क़ायम किए जाने पर ज़ोर देता है, जो धर्म और संप्रदाय की राजनीतिक साज़िशों से ऊपर उठकर देश की बहुलवादी, धर्म-निरपेक्ष, सहिष्णु और उदारवादी परम्पराओं का सम्मान करता है. कुछ बुज़ुर्ग इतिहासकारों का मत है कि इस दस्तावेज़ में प्रस्तुत किए गए बहुमूल्य विचार शायद किसी ने बाद में गढ़कर बाबर के नाम से जोड़ दिया है. अगर यह सही है, तो जिसने भी यह काम किया है, बहुत ही नेक और उमदा काम किया है, क्योंकि न सिर्फ़ यह कि (नीचे दी गयी) यह बातें भारतीय राजनीति की बुनियादी उसूलों को उजागर करती हैं, बल्कि यह भारत में राजनीतिक और सांस्कृतिक परम्पराओं की अनेकता में एकता के एक लंबे इतिहास की तरफ़ इशारा करती हैं.
बाबर नहीं तो उसके बेटे (हुमायूँ) और पोते (अकबर) भारतीय सन्दर्भ में राजनीतिक आदर्शों को भली-भांति समझते थे और उनका सम्मान करते थे, और जैसा कि ऊपर कहा गया यह एक पुरानी ऐतिहासिक परंपरा का हिस्सा था जो न सिर्फ़ प्राचीन काल तक चला जाता है, बल्कि इसकी गूँज आधुनिक काल की राजनीति में सांप्रदायिक ज़हर के ख़िलाफ़ उठनेवाली आवाज़ों में भी सुनने को मिलती रही है. इस तरह, इस डॉक्यूमेंट में उठाए गए मुद्दों की प्रासंगिकता पर ग़ौर करने की ज़रुरत है. कहते हैं:
मेरे बेटे! हिन्दुस्तान में मुख़्तलिफ़ मज़हबों के लोग रहते हैं और ईश्वर की बड़ी इनायत है कि उसने तुम्हें इस मुल्क का शासक बनाया है. अपनी बादशाही में तुम्हें नीचे दी गयी बातों का ख़याल रखना चाहिए:
१. तुम मज़हबी तास्सुब को अपने दिल में हरगिज़ जगह न दो और लोगों के मज़हबी जज़बात और मज़हबी रस्मों का ख़याल रखते हुए रु-रियायत के बग़ैर सब लोगों के साथ पूरा इंसाफ़ करना। (जैसा कि हम जानते हैं भारत में धार्मिक सहिष्णुता और धर्म-निरपेक्षता या सेक्युलरिज़्म की परिभाषा यही है).
२. चूँकि गौ-हत्या के नाम पर धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने का राजनीतिक खेल मध्यकाल में शुरु हो चुका था, इसलिए यह नसीहत सुनने में अच्छी लगती है कि तुम गौ-कुशी से विशेषकर परहेज़ करो, ताकि इससे तुम्हें लोगों के दिल में जगह मिल जाए और इस तरह वह एहसान और शुक्रिया की ज़ंजीर से तुम्हारे ताबे हो जाएँ.
३. धार्मिक स्थलों के राजनीतिक दुरुपयोग की दुर्भाग्यपूर्ण कहानी भारतीय इतिहास के स्वर्णिम दौर में भी काले अक्षरों में लिखी जाती रही है. इस सन्दर्भ में यह वसीयत काफ़ी मायने रखती है कि: तुम्हें किसी क़ौम की इबादतगाह का विध्वंस नहीं करना चाहिए और हमेशा सब से पूरा इंसाफ करना चाहिए, ताकि बादशाह और रैयत के ताल्लुक़ात दोस्ताना हों एवं मुल्क में शांति-व्यवस्था क़ायम रहे.
४. इस्लाम का प्रचार-प्रसार ज़ुल्मो-सितम की तलवार के मुक़ाबले में लुत्फ़ो-एहसान की तलवार से बेहतर हो सकेगी। उपरोक्त मशवरा क़ाबिले ग़ौर है, क्योंकि हिन्दुस्तानी मुसलमानों की इतनी बड़ी आबादी धर्मान्तरण द्वारा ही इस्लामी समाज का हिस्सा बन सकी है और मेरे नज़दीक इस्लामीकरण की यह प्रक्रिया अभी भी जारी है, और इसमें राजनीतिक शक्ति का इस्तेमाल नहीं के बराबर रहा है. इस्लाम के बड़े पैमाने पर पूरी दुनिया में प्रसार की कहानी इस्लामी उसूलों की करिश्माई असर के रुप में समझी जा सकती है. यह और बात है कि इस्लाम जहाँ भी पहुँचा है वहाँ की स्थानीय सामाजिक स्ट्रकचर्स और असमानताओं को भी अपना लेता है, जैसा कि हम हिन्दुस्तानी मुसलमानों में ज़ात-पात की बीमारी में देखते हैं, जबकि इस्लाम में तो बराबरी पर ज़ोर देते हुए ऊँच-नीच के भेदभाव को ख़त्म करने की बात कही गयी है. एक ही सफ़ में खड़े हो गए महमूदो अयाज़, न कोई बंदा रहा न कोई बंदानवाज़...
५. इसके साथ ही यह निर्देश भी अहम है कि: शिया-सुन्नी इख़्तेलाफ़ात को हमेशा नज़र-अंदाज़ करते रहो, क्योंकि उनसे इस्लाम कमज़ोर हो जाएगा। यह दुर्भाग्य का विषय है कि शिया-सुन्नी तनाज़ा इस्लाम के अंदर का बहुत बड़ा मसला बना हुआ है और जिसका समाधान मुश्किल ही लगता है. हालाँकि समय-समय पर आलमे-इस्लाम को जोड़ने वाले गिरोह और आंदोलनों ने आपसी फ़िरक़ापरस्ती और मसलकी संघर्ष को समाप्त करने पर ज़ोर दिया है. निसंदेह, शिया-सुन्नी चक्कर मुसलमानों को बांटता है और कमज़ोर करता है.
६. बाबर की आख़िरी वसियत फिर से बहुलवादी परिप्रेक्ष की विविधताओं को समझने और मैनेज करने का एक बहुत ही सार्थक नुस्ख़ा है. इस ख़ूबसूरत वाक्य को देखिए: अपने रैयत के मुख़्तलिफ़ ख़ुसूसियात को साल के मुख़्तलिफ़ मौसम समझो, ताकि हुकूमत बीमारी और कमज़ोरी से महफूज़ रह सके.
इतिहासकारों की पांडित्व विमर्श से क़तानज़र, यह बात पूरे वसूक़ के साथ कही जा सकती है कि उपरोक्त सलाहो-मशवरा शासक वर्ग को आईना दिखाते हुए मध्यकाल में राजतंत्र और सत्ता की ज़िम्मेदारियों पर रौशनी डालती हैं. हम जानते हैं कि मध्य-युग में कई राजवंशों ने कई-कई शताब्दियों तक राज किया है. उन्होंने अपनी सैन्य-शक्ति के आधार पर सत्ता हथियाया होगा और शासन की वैधता के लिए धर्म का सहारा भी लिया हो, लेकिन उनके राजत्व के सिद्धांत की सबसे महत्वूर्ण ज़िम्मेदारी समाज में न्याय और शांति-व्यवस्था स्थापित करना थी, जिसके बिना सत्ता में बने रहने का कोई औचित्य ही नहीं था. आज जबकि सरकारों को पाँच साल भी सत्ता में बना रहना मुश्किल साबित हो रहा है, मध्ययुगीन राजनीतिक मूल्य, सिद्धांत, नीति और क्रिया-कलाप को समझना प्रासंगिक मालूम पड़ता है, हालाँकि ज़माना बदल चुका है और राजनीति में उसूलों और मूल्यों का आभाव है. क्या आज के शासक वर्ग के लिए भ्रष्टाचार-मुक्त समावेशी शासन प्रदान करना, जिसमें समाज के पिछड़े तबक़े के लोग भी इज़्ज़त से जी सकें, असंभव काम है? और क्या लोगों को धार्मिक मायाजाल में फँसा कर हमेशा के लिए बेवक़ूफ़ बनाया जा सकता है?
बहुत ही प्रासंगिक ब्लॉग है.
ReplyDeleteवाक़ई . उपरोक्त वासियत आज भी उतनी ही रेलेवेंट है , और इससे आज के राजनीतिज्ञों को सीख लेने की ज़रूरत है . हिंदुस्तानी जनमानस जाति और धर्म के बारे में रहकर सोंचता तो है लेकिन ज़्यादातर जनसंख्या ऐसे लोगों की है जो बहलवादी विचारधारा से इत्तेफ़ाक रखती है - कहने का मतलब , मध्यकाल हो या इक्कीसवीं सदी, जनमानस को धार्मिकता पसंद है लेकिन संप्रदायिकता नहीं . इसी बात पर नेहरु और पटेल में सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण को लेकर मतभेद हुआ था . पटेल जूनागढ़ के हिंदुस्तान में शामिल होने के बाद वहाँ की जनता को सोमनाथ को पुनर्निर्मित कर तोहफ़े के रूप में देना चाहते थे . नेहरु का मानना था कि राज्य चूँकि धर्मनिरपेक्ष है इसलिए राज्य को इसकी ज़िम्मेदारी नहीं लेनी चाहिए. पटेल की मृत्यु के बाद भी नेहरु ने इसी कारण से राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को इसके अनावरण में नहीं जाने की सलाह दी थी, हालाँकि राजेंद्र प्रसाद ने उनकी बात नहीं मानी . परन्तु इतिहास के इन वक़यों से हमें सीख लेने की ज़रूरत है . राज्य के कर्ता धर्ताओ को ये समझना चाहिए की व्यक्ति विशेष के धार्मिक होने में अपराध नहीं है, लेकिन राज्य द्वारा धार्मिकता का बढ़ावा घोर अपराध है और हिंदुस्तान सरीके बहुधर्मीय समाज के लिए विध्वंसक . मुग़लिया शहंशाहों में अकबर इसीलिए सफल रहा और औरंगज़ेब असफल शासक साबित हुआ.