इतिहासनामा - हज़रत अमीर ख़ुसरौ देहलवी (१२५३ - १३२५)



रज़ीउद्दीन अक़ील 

'छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके....'

सूफ़ियों के चिश्ती सिलसिले के एक बड़े पीर और ख़्वाजा, हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया से वाबस्ता, दोस्त, मुरीद और शायर अमीर ख़ुसरौ का नाम क़व्वाली के हर प्रोग्राम में लाज़मी तौर पर लिया जाता है. हिन्दुस्तान के सांस्कृतिक धरोहरों की उपलब्धियों और उत्कृष्टता की सुनहरी तारीख़, ख़ासकर गीत, संगीत, शेरो-शायरी, जैसे ग़ज़ल और क़व्वाली, में ख़ुसरौ का नाम और उनके बहुमुखी और महत्वपूर्ण योगदान की चर्चा पहली पंक्ति की मायनाज़ हस्तियों के साथ किया जाता रहा है. फिर भी खुसरौ की जीवनी पर इतिहासकारों ने न के बराबर ही लिखा है, हालांकि दिल्ली सलतनत में सत्ते की उठा-पटख़, राजनीतिक गठजोड़ और जंगों की ख़ून-रेज़ियों को भी ख़ुसरौ ने बहुत क़रीब से देखते हुए विजय-पताका लहराने वाले सुलतानों और उनकी औलादों की बहादुरी का अपने क़सीदों में जोशो-ख़रोश के साथ महिमा-मंडन किया था. 

आधुनिक दौर में, फ़ारसी और उर्दू के उस्ताद भी ख़ुसरौ की क़ाबिलियत की दाद देते रहे हैं, लेकिन उन पर अच्छे शोध ग्रन्थ कम ही मिलते हैं. ख़ुद ख़ुसरौ की लेखनी का एक बहुत बड़ा ज़ख़ीरा पांडुलिपियों की शक्ल में महफ़ूज़ तो है, लेकिन उनका सम्पदान, प्रकाशन और भाषाई और ऐतिहासिक दृष्टिकोण से अध्ययन लगातार जारी रखने की ज़रूरत है. ख़ुसरौ के हिन्दवी कलाम को इतिहासकारों ने ज़्यादा तवज्जो नहीं दिया है, और हालांकि उर्दू-हिंदी के सभी प्रतिष्ठित विद्वान उनकी तारीफ़ करते रहे हैं लेकिन काम कम ही किया है. ग़र्ज़ कि ख़ुसरौ पर जितना भी अच्छा काम लिखा और प्रकाशित किया जाए कम ही होगा.

इस लेख में मेरी कोशिश का दायरा थोड़ा सीमित है, क्योंकि यह इस दिशा में एक प्रांरभिक प्रयास का हिस्सा है. यहाँ पहले हम मुग़ल दौर के सबसे बड़े इस्लामी स्कॉलर, हदीस के जानकार, तारीख़दाँ और तज़किरा-निगार (जीवनी-लेखक), शेख़ अब्दुल हक़ मुहद्दिस देहलवी की जानी-मानी फ़ारसी किताब, अख़बारूल अख़यार, में अमीर ख़ुसरौ की सूफ़ियाना जीवनी से जुड़ी किंवदंतियों के कुछ अंश प्रस्तुत करेंगे. इसके बाद २०वीं शताब्दी में वहीद मिर्ज़ा कृत, अमीर ख़ुसरौ, से चंद इक़्तिबासात लेकर ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में एक संक्षिप्त टिप्पणी किया जाएगा. मेरे नज़दीक वहीद मिर्ज़ा की यह तसनीफ़ अमीर ख़ुसरौ पर उर्दू में लिखी सबसे अच्छी किताबों में शुमार हुआ चाहती है.

अब्दुल हक़ मुहद्दिस ने अपनी प्रामाणिक और विश्वसनीय ग्रन्थ, अख़बारूल अख़यार में अमीर ख़ुसरौ पर लिखे अध्याय का एक बड़ा हिस्सा अमीर ख़ुर्द किरमानी की १४वीं शताब्दी के मध्य में लिखी किताब सियरुल औलिया पर आधारित किया है. अमीर ख़ुर्द का पूरा परिवार निज़ामुद्दीन औलिया का तरबियत-याफ़्ता था, और सियरुल औलिया को चिश्ती सूफ़ियों के एक प्रमाणपुष्ट और लोकप्रिय तज़किरा के तौर पर माना और पढ़ा जाता रहा है. ख़ुसरौ को कवियों के सुलतान, बड़े आलिम-फ़ाज़िल और कमाल के शायर बताते हुए, अब्दुल हक़ ने कहा है कि आप शेख़ निज़ामुद्दीन औलिया के पुराने दोस्तों और मुरीदों में से थे. आपको शेख़ से निहायत अक़ीदत व मुहब्बत थी, और शेख़ भी आप पर बहुत शफ़क़त व इनायत करते थे. शेख़ की ख़िदमत और हुज़ूर में किसी और को इतनी राज़दारी और क़ुरबत हासिल न थी जितनी अमीर ख़ुसरौ को थी. आपका यह मामूल था कि रात की नमाज़ (इशा) के बाद हमेशा शेख़ की ख़िदमत में हाज़िर होते और हर क़िस्म की गुफ़्तगू के अलावा अपने दोस्तों की दरख़ास्तों को पेश करते.

अब्दुल हक़ ने आगे कहा है कि शेख़ ख़ुसरौ की सूफ़ियाना तरबियत चिट्ठी लिखकर भी करते और उनमें शायर को तुर्क-अल्लाह के नाम से ख़िताब करते। एक ख़त का मज़मून चिश्ती सूफ़ियों की तालीमात को एक बेहतरीन वाक्य में इसतरह समेट देता है: जिस्म की हिफाज़त के बाद उन तमाम मामलों से गुरेज़ किया जाए जो शरअन नाजायज़ हैं, और अपने औक़ात की निगरानी करनी चाहिए, अपनी उम्र अज़ीज़ को ग़नीमत समझा जाए कि इसके सबब तमाम मुरादें हासिल होती हैं, ज़िन्दगी बेकार कामों में ज़ाए न की जाए, अगर ज़मीर चाहत के एहसास में मुबतला हो तो उसे दिली सुरुर में ढाल देना चाहिए, क्योंकि तरीक़त के रास्ते में इसी का एतबार है, और ख़ैर-ख़ूबी की तलब को हर चीज़ से ऊपर रखा जाए.

इस तरह, अब्दुल हक़ के अनुसार, सूफ़ीमत के उसूल और दरवेशों के हाल से पूरी तरह वाक़िफ़ ख़ुसरौ का दरबारी लोगों और बादशाहों से ताल्लुक़ तो था लेकिन स्वाभाविक तौर पर उनके दिल का मैलान सत्ताधारी लोगों के साथ न था. क्योंकि आपके कलाम में जो रुहानी बरकात हैं वह पापी लोगों के दिलों में कम ही पायी जाती हैं और ऐसे लोगों की कविताओं को क़बूलियत और दिली तासीर मुयस्सर नहीं होती.

दिल्ली सलतनत से जुड़े एक राजनीतिक अभिजात परिवार में पैदा होने वाले इस शायर (बाप तुर्क और माँ राजपूत) की सूफ़ी-इस्लामी तरबियत का ही कमाल था कि, एक रिपोर्ट के मुताबिक़, ख़ुसरौ देर रात की नमाज़ (तहज्जुद) में हर शब क़ुरान के तीस में से सात पारे या खंड पढ़ा करते थे. इसलिए इसमें कोई ताज्जुब नहीं कि निज़ामुद्दीन औलिया अपने जमाअत-ख़ाने में महफ़िले समा का आग़ाज़ ख़ुसरौ की तिलावते क़ुरान के साथ करवाते थे. कहते हैं कि एक रोज़ शेख़ ने उनसे पूछा: तुर्क, तुम्हारी मशग़ूलियात का क्या हाल है? ख़ुसरौ ने अर्ज़ किया कि: मख़दूम, रात का आखिरी हिस्सा अक्सरो-बेश्तर ख़ुदा को यादकर रोने में कटता है. शेख़ को यह बात अच्छी लगी और आपने फ़रमाया: अल्हम्दोलिल्लाह, कुछ असरात ज़ाहिर हो रहे हैं.

फ़ारसी शायरी में भी अपने पिरो-मुर्शिद निज़ामुद्दीन औलिया के मशवरे पर ही ख़ुसरौ ने इस्फ़हानी तर्ज़ अपनाया था. और शेख़ ने ख़ुद अपने हाथ से ख़ुसरौ को एक ख़ास टोपी से नवाज़ा था और कहा था कि सूफ़ियों के अक़वाल, उनकी बातों और तौर तरीक़ों, को हमेशा पेशेनज़र रखना। इसके साथ ही, निज़ामुद्दीन ने ख़ुसरौ की तारीफ़ में यह शेर भी कहा है, रुबाई:

ख़ुसरौ के बे नज़्मो नस्र मिसलश कम ख़ास्त 

मिलकियत मुल्के सुख़न ऑन ख़ुसरौ रास्त

इन ख़ुसरौ मास्त नासिर ख़ुसरौ नीस्त 

ज़ीराके ख़ुदाए नासिरे ख़ुसरौ मास्त 

यानि, नज़्मो नस्र में अमीर ख़ुसरौ का और कोई हम पल्ला नहीं, सुख़नगोई की बादशाहत उसी के शयाने शान है, यह हमारा ख़ुसरौ है, नासिर ख़ुसरौ नहीं, क्योंकि हमारा ख़ुसरौ नासिर ख़ुसरौ से बुलन्दतर है.

एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक़, ख़ुदा की याद में ग़र्क़ एक मजज़ूब दरवेश ने ख़ुसरौ की पैदाइश के वक़्त ही यह भविष्यवाणी कर दिया था कि यह ख़ुशनसीब और प्रतिभासम्पन बच्चा फ़ारसी के शायर ख़ाक़ानी से दो क़दम आगे निकल जाएगा। अब्दुल हक़ ने कहा है कि शायद इससे मुराद ख़ुसरौ की मसनवी और ग़ज़ल में महारथ से हो, क्योंकि वह क़सीदे में ख़ाक़ानी के स्तर तक नहीं पहुँच सके. इसतरह शेरगोई में आप ख़ाक़ानी के बराबर हैं, लेकिन उनसे आगे नहीं निकल सके.

अब्दुल हक़ ने बाद के इस रिपोर्ट को भी ख़ारिज किया है कि मुलतान में ख़ुसरौ की मुलाक़ात फ़ारसी के अज़ीम शायर सादी शिराज़ी से हुई थी. ख़ाने शहीद ने, जो ग़ियासुद्दीन बलबन का बेटा, मुलतान का हाकिम था और मंगोलों के हाथ मारा गया, सादी को शीराज़ से मुलतान आमंत्रित किया था. लेकिन सादी ने यह कहकर आमंत्रण ठुकरा दिया था कि: अब मैं बूढ़ा हो गया हूँ और हिन्दुस्तान के सैर की ख़्वाहिश भी नहीं है.

जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, हिन्दुस्तानी फ़ारसी और संगीत की तारीख़ में अमीर ख़ुसरौ का नाम सुनहरी अलफ़ाज़ में लिखा जाता रहा है. ख़ुसरौ की बेहतरीन ग़ज़लों के सम्बन्ध में उनके आधुनिक जीवनी-लेखक वहीद मिर्ज़ा फ़रमाते हैं: 'ख़ुसरौ की ग़ज़लों में जो सोज़ो-गुदाज़ है इसका बैन सबूत यह है के उनके ज़माने से लेकर आज छह सौ साल से ज़ायेद गुज़र चुके हैं, लेकिन समा और क़व्वाली की महफ़िलों में ग़ालिबन अब भी सब से ज़्यादा उन्हीं की ग़ज़लें मक़बूल और रायेज हैं'. 

सूफ़ियों की रवादारी के बारे में बहुत कुछ कहा जाता रहा है. ख़ुद ख़ुसरौ का यह कथन मशहूर है कि हर क़ौम के अपने तरीक़े, रस्ते और क़िबले होते हैं, उसी तरह से जिस तरह मुसलमानों ने मज़हबी गुमराही के टेढ़े रास्ते को छोड़कर अपने दीन की सीधी राह पर चलना सीखा है:

हर क़ौम रास्त राही दीनो क़िबले गाही 

मा क़िबले रास्त करदीम बरतरफ़ कज-कुलाही 

हालांकि ख़ुसरौ की शख़्सियत किसी तग़मे की मुँहताज नहीं, लेकिन फिर भी यह ख़ुशी की बात है कि उनके समकालीन ईरानी फ़ारसी कवियों ने भी इस हिन्दुस्तानी शायर की बेनज़ीर सलाहियत का एतराफ़ किया है. यहाँ तक कि एक शेर में फ़ारसी के बुज़ुर्ग-तरीन शायर हाफ़िज़ शिराज़ी ने ख़ुसरौ की तरफ़ इस तरह इशारा किया है:

शकर शिकन शवंद हमे तूतियाने हिन्द 

ज़े-इन क़न्द-ए पारसी के बे बंगाला मी-रवद 

हाफ़िज़ को बंगाल के सुलतान ने अपने वहाँ आमंत्रित किया था, तो शायर ने क्या ख़ूब कहा कि हिन्दुस्तानी तोतों के फ़ारसी की मीठी आवाज़ के कुछ टुकड़ों की मिठास अब तो बंगाल तक पहुँच चुकी है, तो क्या बजा है कि इसका लुत्फ़ न उठाया जाए! हाफ़िज़ का यह शेर इसलिए भी अहमियत रखता है कि बाद के ज़माने में ईरानियों ने हिन्दुस्तानी फ़ारसी को सिरे से हिन्दुस्तानी स्टाइल, सबके हिन्दी, कहकर हिक़ारत की नज़र से देखने की कोशिश की है. हालांकि यहाँ यह याद-दिहानी भी ज़रुरी है कि ईरानियों को हिन्दुस्तानियों से ख़ास दिल्लगी है, और इसका इतिहास बहुत पुराना है. हाफ़िज़ ने अपनी एक ख़ूबसूरत ग़ज़ल में शीराज़ की तुर्क हसीना के गोरे चेहरे पर आकर्षक काले तिल को हिन्दू की संज्ञा दी है, और कहा है कि उसके एवज़ समरक़ंद और बुख़ारा को बख़्श दिया जाना क्या मज़ायक़ा है!

इस दिलचस्प मामले के साथ ख़ुसरौ पर लौटते हैं. अरबी, संस्कृत और भारतीय क्षेत्रीय भाषाओं पर ख़ुसरौ की राय और उन पर ख़ास पकड़ का अंदाज़ा निम्नलिखित शेरों से लगाया जा सकता है. अरबी पर यूँ फ़रमाया है कि हिन्दुस्तानी तुर्क होने के नाते हम हिन्दवी में सुख़नगोई के लायक़ तो ज़रुर हैं, लेकिन हमारे पास अरबी की मिस्री-शकर नहीं है कि कोई माक़ूल जवाब दे सकें:

तुर्क हिंदुस्तानीम मन हिन्दवी गोयम जवाब

शकर मिस्री नादारम के-अज़ अरब गोयम सुख़न 

संस्कृत को एक धार्मिक भाषा की हैसियत से इसतरह इज़्ज़त बख़्शी है कि यह फ़ारसी-सिफ़त है, बल्कि पुरानी फ़ारसी (दरी) से बेहतर है, लेकिन शायद अरबी से कमतर:

व-इनअस्त ज़बानी बे-सिफ़त दर दरी 

कमतर अज़ अरबी ओ बेहतर अज़ दरी 

और मध्य-युग में सबको मालूम था कि संस्कृत और फ़ारसी एक दूसरे की बहनें हैं, एक का सुसराल ईरान और दूसरे का हिन्दुस्तान, यह और बात है कि बाद के ज़माने में इनके बीच सौतेलेपन का धार्मिक ज़हर घोल दिया गया हो.

मातृभाषा की हैसियत से ख़ुसरौ का हिन्दवी कलाम बहुत अहमियत का हामिल है, हालांकि फ़ारसी की सियासत के नशे में चूर तारीख़दाँ अब भी क़ायल नहीं हैं, लेकिन ख़ुद ख़ुसरौ ने अर्ज़ किया है कि उन्होंने हिन्दुस्तान की बहुत सारी भाषाओं को कमो-बेश सीखकर उनमें अपनी बात कही है:

मन बे-ज़बानहाय बेशतरी 

करदे अम अज़ तबे शनासा-गुज़री 

दानमो दरयाफ़्ते ओ गुफ़्ते हम 

जस्ते ओ रौशन शुदे ज़े-ऑन बेशो-कम 

ख़ुसरौ के मशहूर हिंदी दोहों के ऐतिहासिक मूल्य को भी नज़र-अंदाज़ नहीं किया जा सकता. कई मंझे हुए क़व्वालों ने इन्हें बहुत अच्छे से निभाया है. मुलाहिज़ा फ़रमायें:

ख़ुसरौ रैन सुहाग की जागी पी के संग 

तन मेरो मन पियो को दूधिए एक रंग 

और अपने पिरो-मुर्शिद हज़रत निज़ामुद्दीन के स्वर्गवास पर, शोक-संतप्त ख़ुसरौ द्वारा कहा गया यह मर्सिया-नुमा दोहा मक़बूले आम है:

गोरी सोवे सेज पर मुख पर डारे केस 

चल ख़ुसरौ घर आपने रैन भइ चहुँ देस 

और आख़िर में, हिन्दवी कलाम में पायी जाने वाली पहेलियों में से कुछ तो ख़ुसरौ की अवश्य होंगी। मिसाल के तौर पर:

फ़ारसी बोली आयी न 

तुर्की ढूंढी पायी न 

हिंदी लोलूं आरसी आए 

ख़ुसरौ कहे न कोई बताए 

संभव है कि बाद के ज़माने में लोगों ने पॉपुलर गीतों को ख़ुसरौ के नाम से जोड़कर उनके प्रचलन और प्रसारण को चार चाँद लगा दिया हो, क्योंकि ख़ुसरौ जीते जी बड़े शायर थे और उनका नाम बिकता था. हिन्दुस्तानी समाज और संस्कृति की झलकियों का जो कोलाज़ ख़ुसरौ ने अपनी लेखनी से बनाया था उसकी भी बहुत तारीफ़ सुनने को मिलती रही है. कुछ नेक लोग ख़ुसरौ को देशभक्त सूफ़ी शायर के लक़ब से नवाज़ते हुए भारत में बहुलवादी समाज के नव-निर्माण में ख़ुसरौ के अहम रोल की दुहाई देते रहे हैं, जो कुछ हदतक आज के कठिन दौर में ज़रूरी भी है. 

ख़ुसरौ का देहांत उनके पीर निज़ामुद्दीन के स्वर्गवास के छह महीने के अंदर ही ईस्वी सन १३२५ में हुआ, और दोनों की ख़्वाहिश के मुताबिक़ उनका दफ़न भी उनके पहलु में ही किया गया. ख़ुसरौ का मक़बरा, क़व्वालों की जोशीली आवाज़, और श्रद्धालुओं का अक़ीदत-मंदाना हुजूम दरगाह परिसर को एक रुहानी एटमॉसफ़ेयर प्रदान करते हैं, जो दिलों के फ़ायदे और राहत का सबब है. 

ज़े हाले मिसकीन मकुन तग़ाफ़ुल दुराय नयना बनाय बतियाँ....

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यह लेख पहले 'जानकी पुल' पर प्रकाशित हुआ है:


https://www.jankipul.com/2018/12/raziuddin-aquil-writes-on-amir-khusro.html

Comments

  1. As a student of history and lover of Sufi tradition, have been reading a lot about Amir Khusro , one of the most known but least researched personalities of Medieval Indian History. Delighted that colleague and friend Razi Bhai has written such an insightful review about Khusro and less known scholarship about him. It is not just about a personality or literary figure but more about cultural continuties and ruptures. In our times such original writings are rare to read .

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