भारतीय भाषाओं में इतिहास-लेखन की परम्पराएँ और चुनौतियाँ (हिंदी के विशेष सन्दर्भ में)

रज़ीउद्दीन अक़ील

औपनिवेशिक काल की अंग्रेजी कट-दलीली को अगर नजरअंदाज कर दिया जाए, तो यह बात यकीन के साथ कही जा सकती है कि हिंदुस्तान में साहित्य-सृजन और इतिहास-लेखन की बहुआयामी परम्पराएँ प्राचीन-काल से मध्य-युग होते हुए आधुनिक दौर तक चली आती रही हैं. साहित्यक परम्पराएँ न केवल संस्कृत, तमिल और फारसी जैसी शास्त्रीय भाषाओं में देखने को मिलती हैं, बल्कि मध्य-काल से विभिन्न देशज या क्षेत्रीय भाषाओं - कन्नड़, बंगाली, मराठी, हिंदी और उर्दू इत्यादि - में भी पायी जाती हैं.

भारतीय ऐतिहासिक साहित्य चाहे भाषा के आधार पर विभाजित हो या नाना प्रकार की शैलियों में फैला हुआ हो, कालांतर में ये महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्रोत का रूप ग्रहण कर लेता है. लेकिन यहाँ हमारा प्रयास इन स्रोतों की तथ्यात्मकता और साक्ष्य के रूप में उनके बहुमूल्य उपयोग को दिखाने तक सीमित नहीं है. अपितु, इस साहित्य का बहुत बड़ा भाग लेखन-शैली के आधार पर अपने आप में 'इतिहास' की हैसियत रखता है. इतिहस, पुराण, वंशावली, चरित, बुरंजी, बाखर और तारीख आदि शैलियों में पेश किये गए लेख शायद मिथकों से भरे पड़े हों, तथ्यों की सत्यात्मकता की कसौटी पर पूरी तरह खरे न उतरें या उनका विवरण सटीक काल-क्रमानुसार न हो, फिर भी वह भारत में इतिहास-बोध और ऐतिहासिक परम्पराओं की प्रचुर मिसाल पेश करते हैं. सिर्फ इसलिए कि वह आधुनिक काल की पाश्चात्य ऐतिहासिक पद्धति से कुछ हद तक अलग हैं, हम उनके महत्त्व को सिरे से नकार नहीं सकते. 

देशज भाषाई इतिहास की एक बड़ी समस्या यह भी है कि धर्म, जात-पात, क्षेत्रीयता या भाषाई पहचान की राजनीति और संघर्ष में उनका इस्तेमाल एक हथकंडे के रूप में किया जाता है. संवेदनाएं मामूली और कमजोर होती हैं और उनके ठेकेदार बाहुबलि. वह तय करते हैं कि ऐतिहासिक अनुसंधान से निकल कर आने वाली आवाज को कुचल देना है, ताकि समाज परम्परागत मान्यताओं और विश्वास के मायाजाल में फंसा रहे. नतीजतन, साक्ष्यों और ऐतिहासिक तथ्यों पर सामाजिक और ऐतिहासिक स्मृतियों को तरजीह दी जाती है, तथ्यों की व्याख्या में पक्षपात और पूर्वाग्रह की समस्या उभर कर सामने आ जाती है और ज्ञान-रूपी गंगा को संवेदनशील भावनाओं की गन्दी राजनीति से मैली कर दी जाती है. यह सब दरअसल सत्ता की होड़ में इतिहास के दुरूपयोग की निशानी है.

वहीँ दूसरी ओर, राजनीतिक विचारधाराओं और ऐतिहासिक यथार्थ के बीच के अंतर्विरोध और अन्य तमाम कठिनाइयों के बावजूद, विश्वविद्यालयों, शोध संस्थानों और अकादमिक पत्रिकाओं से निकल कर आने वाला पेशेवर इतिहास अपनी बुनियादी उसूलों और रुपरेखा के साथ नए आयाम तलाशता रहा है. भूतकाल से जुड़े प्रासंगिक ऐतिहासिक प्रश्नों का विश्लेषण साक्ष्यों और तथ्यों की प्रमाणिकता के आधार पर किया जाता है. हालांकि इतिहासकारों के सामाजिक और राजनीतिक सन्दर्भ, साहित्यक भाषा, सैद्धांतिक प्रतिपादन और अवधारणाएं, ऐतिहासिक व्याख्या और विवरण को प्रभावित करते हैं, एक अच्छे इतिहासकार से यह उम्मीद की जाती है कि वह अपने ऐतिहासिक विवेचन में वस्तुनिष्ठता और निष्पक्षतावाद का परिचय दें. इन्हीं मापदंडों के आधार पर उनके कार्यों की समीक्षा और कदरदानी होती है, अन्यथा प्रोफेसर तो बहुत बनते हैं लेकिन इतिहास-लेखन के इतिहास में सबको जगह नहीं मिलती.

इतिहास-लेखन की सामयिक प्रवृतियों पर नजर डाला जाए तो हाल के दो-तीन दशकों में काफी प्रगति देखने को मिलती है l विभिन्न भारतीय भाषाओं और शैलियों में पाए जाने वाले स्रोतों के आधार पर राजनीति, धर्म, संस्कृति, स्थापत्य और चित्रकला, जेंडर (लिंग), जाति और क्षेत्रीय आकाँक्षाओं के इतिहास को समझने का प्रयास किया जा रहा है l तक़रीबन सारा अच्छा काम अंग्रेजी में होता है और उसे अंतर्राष्ट्रीय ज्ञान-पटल से जोड़ने का प्रयास किया जाता है l कुछ हद तक बंगाली, मलयालम और मराठी इतिहास अंग्रेजी के अलावा स्थानीय भाषा में भी लिखा जाता रहा है, लेकिन उसका स्तर अंग्रेजी से नीचे रहता है l उत्तर भारत के हिंदी प्रदेशों से आए हुए प्रतिष्ठित संस्थानों के बड़े इतिहासकार हिंदी में पठन-पाठन को अपनी शान के खिलाफ समझते हैं. यानि, यहाँ हालत और भी चिंताजनक है.

शैक्षणिक संस्थान अपने इर्द-गिर्द की सामाजिक और राजनीतिक गतिविधियों से पूरी तरह कटकर नहीं रह सकते. इसलिए शिक्षण और शोध के विषय अपने समकालीन सन्दर्भ से प्रभावित होते रहते हैं. फिर भी सार्वजनिक ज्ञान-क्षेत्र के भारतीय भाषाई इतिहास और पेशेवर अकादमिक इतिहास के बीच एक बहुत बड़ी खायी है, जिसे पूरी तरह पाटना तो मुश्किल है लेकिन उनके बीच के फ़ासले को कम करके ऐतिहासिक शोध को ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुँचाना ज़रूरी है. राजभाषा के नाम पर सरकार प्रति वर्ष करोड़ों रुपये खर्च करती है और गैर हिंदी भाषी प्रदेशों में हिंदी थोपने का मुद्दा गाहे-बगाहे उभरता रहता है. लेकिन, काम कागजी है, या सिरे से नदारद. हिंदी की सौतेली बहन उर्दू का मामला भी जग-जाहिर है - बड़े मियां तो बड़े मियां, छोटे मियां सुबहानल्लाह!

हिंदी में गुणात्मक, स्तरीय और अकादमिक ग्रंथों की कमी कोई ढकी-छुपी बात नहीं है. पाठ्य-पुस्तकें तीस-चालीस साल पुराने शोध को बैलगाड़ी की चाल से ढोती हैं. अच्छे मौलिक शोध-प्रपत्र हिंदी में नहीं लिखे जाते हैं. ऐतिहासिक शोध-पत्रिकाएं या तो नहीं के बराबर हैं या उनका स्तर घटिया दर्जे का है. इतिहासकारों और शोधकर्ताओं को कम से कम दो से तीन भाषाओं में महारथ होनी चाहिए - ऐसे विद्वान कम ही मिलते हैं. आम तौर पर, साहित्य वाले नया इतिहास नहीं पढ़ते और इतिहासकार अभी भी साहित्य को पूरी तरह मनगढंत समझकर उनके महत्व को नजरअंदाज कर जाना चाहते हैं. यह एक नासमझी है, जिसे हाल के वर्षों में थोड़ी-बहुत सफलता के साथ दूर करने की कोशिश की गयी है.

हिंदी में इतिहास-लेखन और शिक्षण से जुडी समस्याओं के निदान को मद्दे नजर रखते हुए शायद यह कहा जा सकता है कि अंग्रेजी की अच्छी किताबों और अधिकृत पाठ्य-पुस्तकों का अनुवाद आसान जबान में निरंतर होता रहना चाहिए. इसके आलावा हिंदी में भी मौलिक पाठ्य-पुस्तकों का लेखन और प्रकाशन जारी रहे. हिंदी में ऐतिहासिक शोधकार्य को भी बढ़ावा दिया जाना चाहिए. यह विडंबना है कि प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों और संस्थानों के शोधकर्ता अपना शोध-ग्रन्थ, जिसके लिए उन्हें पी.एच.डी. की उपाधि मिल सके, हिंदी में नहीं लिख सकते. लेकिन सरकारी बोर्ड हिंदी में अवश्य लिखे होने चाहिए. स्तरीय प्रकाशन को बढ़ावा देने के लिए हिंदी में ऐतिहासिक जरनल या पत्रिकाएं सुचारू रूप से निकाले जाने की आवश्यकता है, यहाँ भी सरकारी संस्थानों और वित्तीय योगदान की जरुरत है. हम अकादमिक संस्थानों में घोटालों की बात नहीं करते. यहाँ समस्या और भी जटिल है l यहाँ बात सिर्फ प्रायोरिटी (प्राथमिकता) और ग्लैमर (अंग्रेजी की चमक-झमक) की भी नहीं है, बल्कि विभिन्न प्रसंगों में स्वार्थ और नियत की भी है.

भारतीय भाषाई साहित्य निम्नवर्गीय इतिहास और महत्वकांक्षाओं की भी अक्कासी करता है, वहीं अकादमिक संस्थानों में ब्रिटिश औपनिवेशिक काल से उच्च तबकों के सामंती लोग आधुनिकता का चोला ओढ़कर अपनी पैठ बनाए बैठे हैं. परिणामस्वरूप, पिछड़े वर्गों से उठकर आने वाले न जाने कितने कबीर-दबीर का गला घोंट दिया जाता है. इसके अलावा, नए शोध को आसानी से तस्लीम नहीं किया जाता है. पब्लिक डुमेन में न्याय की बात उठाना राजनीतिक प्रोपगंडे का रूप धारण कर लेता है. इसके बरअक्स, अकादमिक संस्थानों में गुरु-चेला, जात-पात, क्षेत्रीयता और धार्मिक सम्प्रदायिकता को विचारधारा और सिद्धांत-रूपी विद्वत जामा पहनाकर ऐतिहासिक अनुसंधान और ज्ञान-विज्ञान की बात की जाती है.

किसी समाज के निरंतर नव-निर्माण में उसके ऐतिहासिक धरोहरों का ज्ञान और उपयोग बहुत बड़ी भूमिका अदा करते हैं. चालीस-पचास साल पहले लिखी गयी किताबों को लेकर हम बैठ जाएँ तो पुरानी लकीर के फकीर ही बने रहेंगे, जबकि दुनिया कहाँ से कहाँ जा चुकी होगी. दुनिया की वही क़ौमें तरक्की करती हैं जो इतिहास की दिखाई हुई रौशनी में दूर तक निकल जाती हैं. शैक्षणिक संस्थान इस प्रक्रिया में महत्वपूर्ण कड़ी का काम करते हैं. लेकिन मौजूदा दौर में सारा जोर या तो डिग्रियों या उपाधियों पर है या ज्ञान से जुड़ी सत्ता की राजनीति पर. फलस्वरूप, शिक्षा से जुड़े लोगों का, न सिर्फ छात्रों बल्कि शिक्षकों का भी, मानसिक पुनर्गठन नहीं हो पा रहा है. दकियानुसिता एक ऐतिहासिक यथार्थ है.

ग्रन्थ-माला:

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