इतिहासनामा - मध्यकालीन भारत में सूफ़ीमत की प्रमुख विशेषताएँ

रज़ीउद्दीन अक़ील 

सूफ़ी और उन जैसे दूसरे मुस्लिम बुज़ुर्ग ख़ुदा के आशिक़, दोस्त या वली कहलाते हैं. उनका मामला दिल का मामला है, जो उन्हें ईश्वर से जोड़ता है और इंसान और इंसान के बीच के सम्बन्ध को ठीक करता है. सूफ़ी यह काम ख़ूबसूरती से करते हैं और यह समझते हैं कि चूँकि हर चीज़ ख़ुदा की बनाई हुई है, हर चीज़ में ख़ुदा का नूर पाया जा सकता है. सूफ़ियों की यह नेक नियती उनके जीवन और सिद्धांतों में हुस्नो-जमाल की रूह फूंकती है, हालांकि कभी-कभी उनका ग़ुस्सेवर तेवर जलाली रूप धारण करके उनके विरोधियों और प्रतिद्वंदियों को ध्वस्त भी कर सकता था. अमूमन सूफ़ी लोग अपनी करिश्माई शक्ति या करामत का इस्तेमल अपने अनुयायियों और श्रद्धालुओं की भलाई के लिए करते थे, और इसीलिए श्रद्धालु उन्हें ग़रीबनवाज़ और गंजबख़्श जैसे अलक़ाब से पुकारते रहे हैं.

तसव्वुफ़, तरीक़त या सूफ़ीमत की शुरुआत उमय्यद और अब्बासी ख़िलाफ़त में, इस्लाम के अभ्युदय के दो सौ साल के अंदर (७वीं-८वीं शताब्दियों में), प्रचलित व्यापक दुनियापरस्ती और भौतिकता के बरक्स आध्यात्मिक प्रतिरोध के रूप में होती है. आरम्भिक दौर में बायज़िद बुस्तामी, राबिया बसरी और हसन बसरी जैसे दिग्गज तपस्वियों ने आध्यात्मिक ध्यान, अभ्यासों और प्रथाओं के उभरते तरीक़ों से भगवान की प्राप्ति का प्रयास किया. उन्होंने ख़ुद को ईश्वर का सच्चा प्रेमी कहा, और दूसरे मज़हबी रहनुमाओं के धार्मिक अनुष्ठानों को पाखंड की संज्ञा देते हुए उनकी भर्त्सना की, हालाँकि उन्होंने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि इंसान को सदैव ख़ुद अपने गिरेबान में झाँकते हुए अपने दिल को साफ़ करता रहना चाहिए.

सन्यासी जैसे यह मुसलमान तपस्वी अपनी करिश्माई व्यक्तित्व के कारण लोकप्रिय थे. यह तपस्वी आगे चलकर सूफ़ी कहलाए और मशहूर आध्यात्मिक सिलसिलों, जिनकी अपनी विशिष्ट परम्पराएँ थीं, में संगठित हुए. सूफ़ियों के इन सिलसिलों की विभिन्न शाखाएँ और उपशाखाएँ इस्लाम और मुस्लिम समाज के साथ इस्लामी दुनिया  - अरब, अफ़्रीका, स्पेन, ईरान और मध्य-एशिया - में निरन्तर फैलती रहीं। सूफ़ी जहाँ भी गए, वहाँ के रंग में रंग गए. इसके साथ ही, अपने तमाम मतभेदों के बावजूद वह पैग़म्बर मोहम्मद के बताए रास्ते पर चल कर ख़ुदा को पाने के धुन में मस्त रहते, और हालाँकि वह पक्के शिया मुसलमान नहीं थे, उनमें से अधिकतर अपने सिलसिले को हज़रत अली की नेकनामी से जोड़ते हुए उनकी बड़प्पन का गीत गाते, जो बाद में भी क़व्वाली परम्पराओं के बेहतरीन नमूनों में से हैं: 'दमादम मस्त क़लन्दर, अली का पहला नम्बर...'

इस तरह, १३वीं शताब्दी के आरम्भ में दिल्ली सल्तनत की स्थापना से पहले ही, सूफ़ी आध्यात्मिकता इस्लाम की एक मुख्य धारा बन चुकी थी. दर हक़ीक़त, सूफ़ी साहित्य का फ़ारसी में लिखा हुआ पहला बड़ा सैद्धांतिक ग्रन्थ, कशफ़ुल महजूब, ग़ज़नवी पंजाब की राजधानी लाहौर में शेख़ अली हुजविरी दाता गंजबख़्श ने ११वीं शताब्दी में ही लिख डाला था. साथ ही, यह कहने में अतिश्योक्ति नहीं है कि फ़ारसी में लिखे गए सूफ़ी साहित्य का एक बहुत बड़ा हिस्सा भारतीय उपमहाद्वीप में रचा गया है और इस साहित्य का इतिहास तक़रीबन एक हज़ार साल पुराना है.

सूफ़ियों के जो सिलसिले उपमहाद्वीप के विभिन्न क्षेत्रों में फैले, उनमें चार विशेषकर महत्वपूर्ण हैं. इन में से दो, चिश्ती और सुहरावर्दी सल्तनत काल में मशहूर हुए. बाक़ी दो, क़ादिरी और नक़्शबन्दी मुग़ल दौर के आरम्भ के ज़माने से फूले फले. शुरुआत में, सूफ़ी मार्गदर्शक (शेख़, ख़्वाजा, पीर या बाबा) अपने अनुयायियों को अपने ठिकानों, जिन्हें ख़ानक़ाह या जमातख़ाना कहा जाता था, में रहकर शिक्षा-दीक्षा देते और सूफ़ीमत के अपने तरीक़ों में उनकी तरबियत करते थे. वह ख़ुद भी अपनी आध्यात्मिक कर्मठता के सबब ईश्वर के क़रीब समझे जाते थे, और इस तरह लोगों की एक भीड़ उनसे फ़ैज़याब होना चाहती थी. बाद की शताब्दियों में, पिछले दौर के विख्यात सूफ़ियों की दरगाहें लोकप्रिय सूफ़ी आध्यात्मिकता का केंद्र बनीं. सूफ़ियों की इन ख़ानक़ाहों और दरगाहों ने समाज में व्याप्त हर तरह के भेदभाव और पदानुक्रम (हेरारकी) को तोड़ते हुए हर तबक़े के लोगों को अपनी ओर आकर्षित किया, और उनकी मिन्नत समाजत और दुख भरी कहानियों की सुनवाई का आध्यात्मिक प्लेटफॉर्म प्रदान किया. 

सूफ़ियों के यह केंद्र अंततः हिन्दुस्तान के पवित्र भूगोल की शानदार झलक पेश करते हैं, जहाँ जुमे की रात की साप्ताहिक बरकतों से लबरेज़ माहौल के अलावा वार्षिक उर्स (जो सूफ़ियों की पुण्य-तिथी है, मानो सूफ़ी मरने के बाद अपने प्रिय ईश्वर से जा मिला है), में लाखों की तादाद में श्रद्धालु, जिनके लिए मुसलमान होना शर्त नहीं है, दर्शन या ज़ियारत करते हैं. इस मौक़े पर वह फूल और चादर चढ़ाकर अपनी आस्था का इक़रार करते हुए दुआएं माँगते हैं, दिलों को छू लेने वाली क़व्वाली सुनते हैं, और लंगर में वितरित पुलाव या खिचड़ी को तबर्रुक समझ कर नोश फ़रमाते हैं. और वह यह मानते हैं कि ख़्वाजा सबकी बिगड़ी बनाते हैं: 'ख़्वाजा, मेरे ख़्वाजा, ख़्वाजा, ख़्वाजा जी, या ग़रीबनवाज़...'

चिश्ती सूफ़ियों में शुरू के पाँच ख़्वाजा, मुईनुद्दीन चिश्ती अजमेरी, क़ुतबुद्दीन बख़्तियार काकी (मेहरौली, देहली), फ़रीदुद्दीन गंज-शकर (अजोधन, पाक-पटन, पंजाब), महबूबे इलाही निज़ामुद्दीन औलिया (देहली) और नसीरुद्दीन चिराग़-दिल्ली, सूफ़ीमत के इतिहास में और आज भी विशेष दर्जा रखते हैं. इनके अतिरिक्त, हर दौर में और हर जगह बड़े सूफ़ी बुज़ुर्ग हुए हैं जिनकी यादों की मंजूषा श्रद्धालुओं के दिलों को राहत प्रदान करती है, जिनके सहारे वह राज़ी ख़ुशी जी लेते हैं. यह मान्यता भी आम है कि सूफ़ी दरगाहों या दरवेशों और फ़क़ीरों से प्राप्त तावीज़-गंडों की भी यही तासीर है. यह सब क़ुरानी आयात की पॉपुलर ताबीर पेश करते हैं.

सूफ़ी यह समझते थे कि आत्मा और परमात्मा को एक दूसरे से जोड़कर इंसान को भगवान के क़रीब लाया जा सकता है और इंसान और इंसान के भेद को भी ख़त्म करके एक ऐसा माहौल बनाया जा सकता है जिसको वहदतुल वुजूद या अद्वैतवाद जैसे सिद्धांतों द्वारा समझा जा सकता है. जहाँ इस धारणा ने सूफ़ियों को ग़ैर-मुस्लिम आध्यात्मिक विचारधाराओं के क़रीब ला दिया, वहीं सुन्नी इस्लाम के अलम्बरदार (सल्तनत और मुग़लकालीन उलमा) ने उनपर इस्लाम के बुनियादी उसूलों से भटक जाने का इलज़ाम थोपा। उलमा तौहीद यानि एकेश्वरवाद पर ज़ोर देते थे, और ख़ुदा के साथ किसी इंसान के मिलकर फ़ना हो जाने या इंसान को ख़ुदा का रूप समझ बैठने को बिदअत, शिर्क या सरासर ग़ैर इस्लामी अक़ीदा क़रार देकर उनको मिटा देना चाहते थे. मंसूर हल्लाज का मार दिया जाना सूफ़ियों के लिए एक इबरतनाक मिसाल थी, कि अपने आध्यात्मिक अनुभवों और विश्वासों का ढिंढोरा पीटना ख़तरनाक साबित हो सकता है. हालांकि सूफ़ी इसके बावजूद अपनी बात और काम करते रहे.

उलमा का एक बड़ा इलज़ाम यह भी था कि सूफ़ी न केवल पाबंदी के साथ इस्लामी प्रार्थनाओं (जैसे मसजिद की पंजवक़्ता नमाज़) में शामिल नहीं होते थे, बल्कि उनकी आध्यात्मिक प्रथाओं में ग़ैर इस्लामी योग, प्राणायाम और चिल्लए-माकूस वग़ैरह को ख़ासी अहमियत दी जाती थी. यह सही है कि सूफ़ी योग पर एक मध्यकालीन ग्रन्थ, अमृतकुण्ड, को पूरी तरह चाट गए थे. उलमा ने सबसे ज़्यादा सूफ़ियों की गीत-संगीत, महफिले समा या क़व्वाली, के ख़िलाफ़ फ़तवे मंगवाकर हमला किया. लेकिन वह क़व्वाली पर हमेशा के लिए प्रतिबन्ध नहीं लगवा सके. आज की हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत मध्यकाल के सूफ़ियों की देन है, और इस सन्दर्भ में निज़ामुद्दीन औलिया के चहेते शायर अमीर ख़ुसरौ का नाम बार-बार आता है. यहाँ तक कि बड़ा से बड़ा क़व्वाल भी ख़ुद को ख़ुसरौ की औलाद कहलवाने में गर्व महसूस करता है.

इसके अतिरिक्त सूफ़ियों ने भारतीय देशज भाषाओं और साहित्य (पंजाबी, उर्दू, हिंदी, इत्यादि) के अभ्युदय और विकास में भी महत्वपूर्ण रोल अदा किया. इस तरह, सूफ़ियों ने भाषा, साहित्य, संगीत, योग, एकेश्वरवाद और अद्वैतवाद वग़ैरह के माध्यम से लोगों को जोड़ने का काम किया. मध्यकाल में ही कबीर और बाबा नानक जैसे संतों और गुरुओं ने भी इस काम को आगे बढ़ाया. अन्य भक्ति संतों, विशेषकर निर्गुण परंपरा पर चलने वाले गुरुओं ने भी इस प्रक्रिया में उल्लेखनीय योगदान दिया. हिन्दू और मुसलमानी परम्पराओं के मिलने से सिनक्रेटिक समुदायों का अभ्युदय हुआ, हालांकि आख़िरकार धर्म की गंदी राजनीति उन्हें तोड़कर कट्टर धार्मिक संप्रदायों और पंथों में बाँट देती है.

ख़ुद सूफ़ियों की ग़ैर-मुस्लिमों से क़ुरबत का एक नतीजा यह भी निकला कि बड़ी संख्या में उनके श्रद्धालुओं का इस्लामीकरण और धर्मान्तरण भी हुआ, जो सदियों तक चलनेवाली सांस्कृतिक प्रक्रिया से संभव हुआ, हालांकि अधिकतर सूफ़ियों ने यह काम किसी एजेंडे के तहत नहीं किया, न ही इसके लिए उन्होंने मुसलमान सुल्तानों और बादशाहों की शक्ति का इस्तेमाल किया. इसके बरक्स, ज़्यादातर सूफ़ियों ने सत्ता की संप्रभुता का इक़रार करते हुए ख़ुद को सत्ता के लोभ से अलग रखा, लेकिन कुछ सिलसिलों (जैसे नक़्शबन्दी) और सूफ़ियों ने व्यक्तिगत रुप से सत्ता के क़रीब जाकर उसके इस्तेमाल की कोशिश भी किया.

मध्यकालीन भारत की राजनीति और समाज में सूफ़ियों की अहम मौजूदगी को समझने के लिए ख़ुद उनके साहित्य का बहुत बड़ा ज़ख़ीरा काफ़ी है. सूफ़ियों ने फ़ारसी और देशी या क्षेत्रीय भाषाओं में जो साहित्य लिखा है उनमें ख़ास तौर से महत्वपूर्ण हैं: सूफ़ियों के मलफ़ूज़ात (रुहानी वार्तालाप), उनके मकतूबात (विशेषकर अनुयायियों की तरबियत के लिए लिखे गए पत्र), रहस्यवादी ग्रंथ जो आध्यात्मिक परम्पराओं पर बौद्धिक चिंतन करते हैं, सूफ़ियों की अक़ीदतमंदाना जीवनी (तज़किरा) और ख़ुद सूफ़ियों द्वारा रचित रुहानी नग़में. प्रेम-प्रसंगों की पुरानी दस्तानों और लोक कहानियों को समेटते हुए सूफ़ियों ने वृहत्त आख्यानों को लिखने की एक नई परंपरा शुरु की, जिनके कुछ रुपों ने श्रद्धा और भक्ति से ओत-प्रोत जन-मानस की भावनाओं को किसी क़दर प्रभावित किया। दुर्भाग्यवश, आगे चलकर यह भावनाएं राजनीतिक दुरुपयोग की शिकार होती रही हैं. इसके अलावा, चूंकि सूफ़ी या तो राजनीतिक सत्ता और जोड़तोड़ से पूरी तरह कट कर रहते या उनमें पूरी तरह लिप्त, या बीच का रास्ता अख़्तियार करके वक़्तन-फ़वक़्तन ज़रुरी हस्तक्षेप करते थे, इन सभी परस्थितियों में दरबारी साहित्य उनकी गतिविधियों पर भी रौशनी डालता है.

आधुनिक दौर में भी सूफ़ियों के इतिहास पर अच्छा काम हुआ है, हालांकि अभी भी बहुत काम करना बाक़ी है. अज़ीज़ अहमद, मोहम्मद हबीब, ख़लीक़ अहमद निज़ामी, सैयद अतहर अब्बास रिज़वी, मुज़फ़्फ़र आलम, कार्ल अर्न्स्ट, ब्रूस लॉरेन्स, रिचर्ड ईटन और साइमन डिगबी जैसे प्रतिष्ठित इतिहासकारों के अलावा हाल के वर्षों में नाइल ग्रीन और स्कॉट कुगल ने भी सूफ़ी इतिहास की समझ को आगे बढ़ाया है. मैं ख़ुद भी पिछले दो-ढाई दशकों से इस क्षेत्र में प्रयासरत हूँ. 

इस लेख में कहीं-कहीं श्रद्धा की कुछ ख़ुशबूदार पंखुड़ियाँ महक रही होंगी और कहीं हिन्दी का साहित्यक मोड चमक रहा हो, लेकिन कहीं भी ऐतिहासिक शोध और लेखन के प्रोटोकॉल्स की तिलांजलि नहीं दी गई है. सूफ़ी साहित्य से निकलकर आने वाले यथार्थ की सच्ची अक्कासी करना सूफ़ीमत के इतिहासकार का धर्म है.

Comments

  1. बहुत खूब। आपकी तहरीर में बड़ी रवानी है। अनुवाद में यदा कदा उर्दू अलफ़ाज़ के इस्तेमाल ने इतिहास की गरिमा कायम रखते हुए अदबी रंग अता कर दिया है। सिलसिला जारी रहे।

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  2. शुक्रिया सर, बहुत ही उपयोगी और महत्वपूर्ण जानकारी आप ने उपलब्ध कराई ।

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  3. जो भी मेनें कॉलेज में पढ़ा आपने उसका बहुत ही अच्छा विवरण कम शब्दों में कर दिया, आपने ये जानकारी हिंदी में उपलब्ध कराई उसके लिए आपका धन्यवाद, और बहुत ही बेहतरीन लिखा है सर आपने इसी तरह आप हमें सूफ़ी साहित्य की जानकारी देते रहना सर.

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  4. अतीत हमेशा से ज़मानतदार और अपने बाहे फैलाये हुए नए नये परिपेक्ष्य से अपनी व्याख्या का आधार देता रहता है , यह किसी भी बिंदु से शुरू हो कर लहि बिंदु पे जाकर मंज़िले अहसास की साँसे नही लेता बल्कि गुफ्तगू की संस्कृति का आगाज़ करता है, इसी अहसास में अकील sir का यह लेख वफ़ा की एक ईट है धन्यवाद sir आप का इस्तकबाल है

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  5. सूफी संतों के इतिहास को जानना बहुत सुखद अनुभव रहा। Thank you sir

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