पुस्तक परिचय - देशज भाषाई इतिहास





रज़ीउद्दीन अक़ील

इतिहासकार भूतकाल से संबन्धित महत्वपूर्ण घटनाओं और प्रक्रियाओं - जैसे राजनीतिक तिकड़म और मंथन, आर्थिक उथल-पुथल और स्थिरता, सामाजिक बदलाव और सांस्कृतिक विशिष्टता - का अध्ययन कर उन्हें साहित्य के उत्कृष्ट रूपों, गद्य या पद्य, में इस तरह प्रस्तुत करते हैं, कि मानों वह सब कुछ उनके सामने साक्षात् घट रहे हों. ऐसा करते हुए वह यह भी बताना चाहते हैं कि इन ऐतिहासिक प्रक्रियाओं के पीछे कौन-कौन से तत्त्व काम कर रहे थे और वह ऐसा क्यों कर रहे थे. इस तरह इतिहासकार, भाषाई महारथ और नैरेटिव स्ट्रेटेजी के सहारे अपने हिस्टोरिकल आर्ग्यूमेंट्स या ऐतिहासिक तर्क पेश करते हैं. यह सब इतिहास की रौशनी में वर्त्तमान को आईना दिखाने के लिए किया जाता है.

यह काम अगर अभिलेखीय दस्तावेज़ों, ग्रंथीय परम्पराओं, पुरातात्विक अवशेषों या स्थापत्य और चित्रकला - जो इतिहासकार के परम्परागत स्रोत हैं - के सिस्टेमैटिक अध्ययन और अनुसंधान के आधार पर किया जाता है तो इसे विश्वविद्यालयों और अनुसंधान केंद्रों से निकल कर आने वाले पेशेवर इतिहासलेखन का हिस्सा समझा जाता है. समकालीन सामाजिक विज्ञान और मानविकी संकायों के एक अहम विषय, इतिहास, के रूप में इसका पठन-पाठन और इसमें ज्ञान सृजन का काम किया जाता है.

इसके अतिरिक्त, विश्वविद्यालयों से बाहर और दूसरे तरीक़ों से भी इतिहास लिखने और भूतकाल से जुड़ी स्मृतियों, मान्यताओं और अवधारणाओं पर चर्चा होती है. यह काम अमूमन राजनीतिक प्रोपगंडे का हिस्सा बन जाता है, और विशेषकर इसका इस्तेमाल धार्मिक, क्षेत्रीय और जात-पात से संबन्धित पहचान की राजनीति में एक शक्तिशाली हथियार के रूप में होता है.

भारत में इतिहासलेखन की आधुनिक पद्धत्ति का इतिहास ज़्यादा पुराना नहीं है, लेकिन भारतीय शास्त्रीय और क्षेत्रीय भाषाओं में इतिहासलेखन की विभिन्न परम्पराएं सदियों से विभिन्न रूपों में जारी हैं. समकालीन भारतीय देशज भाषाई इतिहास की प्रीहिस्टरी प्राचीन और मध्यकाल से होती हुई हम तक पहुँची है. इतिहास के आधुनिक तरीक़े भाषाई इतिहास को न सिर्फ़ ख़त्म नहीं कर सके हैं, बल्कि सार्वजनिक अनुक्षेत्र में देशज इतिहास को ही तरजीह दी जाती है.

प्रोफ़ेसर पार्था चटर्जी के साथ सम्पादित पुस्तक, हिस्टरी इन दा वर्नाकुलर (परमानेंट ब्लैक), में हमारे साथ एक दर्जन इतिहासकारों ने भारत में विभिन्न प्रकार के देशी भाषाई इतिहास का विद्वतापूर्ण विश्लेषण किया है. संजय सुब्रह्मण्यम, वेल्चेरु नारायण राव, कुमकुम चटर्जी, इन्द्राणी चटर्जी, उदय कुमार, रोसिन्का चौधुरी, प्रदीप कुमार दत्त, सनल मोहन, मिलिंद वाकांकर, अरूपज्योति सैकिया, सुदेशना पुरकायस्थ और बोधिसत्त्व कार आदि इतिहासकारों द्वारा लिखे गए शोध-पत्र, जो इस किताब में सम्मिलित हैं, देशज भाषाओं में लिखे गए इतिहास के सिग्नीफिकेन्स या सार्थकता से रूबरू कराते हैं.

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